________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अवनत। यह उत्थान और पतन का क्रम भी अनवरत है। उत्थान के बाद पतन और पतन के पश्चात् पुनः उत्थान होता ही है और इस तरह काल की यात्रा आगे बढ़ती रहती है। काल-चक्र की यह गतिशीलता सदा अबाधित रहती है। उदाहरण के रूप में घड़ी के काँटों की गति से कालचक्र की गतिशीलता को सुगमता से समझा जा सकता है। घड़ी की सुइयाँ जब बारह अंक से आगे यात्रा करती हैं, तब पतनोन्मुख हो जाती हैं। अधोगति के साथ जब तक छह के अंक पर नहीं पहुँच जाती, तब तक उनकी यात्रा नीचे की ओर बनी रहती है। छह के अंक पर पहुँचते ही वे फिर ऊर्ध्वगामी हो जाती और विकास की पराकाष्ठा बारह के अंक पर पहुँच जाती है। तदनन्तर पुनः पतन या अधोगति हो जाती है। काल-चक्र की उत्थान से पतन और पतन से उत्थान की गतिमयता इसी प्रकार बनी रहती है। मानव जाति का संस्कारगत विकास और ह्रास का क्रम भी घड़ी के इन काँटों की भाँति चलता रहता है।
उत्थान से पतन की ओर जाने वाले काल को 'अवसर्पिणी' काल कहते हैं, यह ह्रासोन्मुख काल है। इस काल में मनुष्यों और तिर्यंचों की बुद्धि, आयु, शरीर की ऊँचाई और अनुभव आदि में क्रमशः अवसर्पण अर्थात् ह्रास होता है।
इसके विपरीत, पतन से उत्थान की ओर जाने वाला काल 'उत्सर्पिणी' काल कहलाता है। यह विकासोन्मुख काल है। इस काल में मनुष्यों और तिर्यंचों की बुद्धि, आयु, शरीर की ऊँचाई, और अनुभव आदि में क्रमश: उत्सर्पण अर्थात् विकास होता
अवसर्पिणी काल के आरम्भ से लेकर उत्सर्पिणी की समाप्ति तक काल का एक चक्र सम्पन्न हो जाता है। यही कालचक्र है। उत्थान से पतन का तथा पतन से उत्थान का यह क्रम सतत बना रहता है। यही समय की परिवर्तनशीलता है। यह परिवर्तन तत्काल हमारे अनुभव में नहीं आता। जब परिवर्तित परिस्थिति काफी आगे बढ़ जाती है, विकसित हो जाती है, तभी हमें आभास होता है कि परिवर्तन हो गया है ___इस प्रकार कालचक्र उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी इन दो विभागों में विभक्त है। दोनों के छह-छह उपविभाग हैं। यहाँ घड़ी का उदाहरण और भी अधिक उपयुक्त है। घड़ी में बारह से छह अंक तक का विभाग छह उपभागों में विभक्त अवसर्पिणी काल का प्रतीक है और छह से बारह तक का भाग छह उपभागों में विभक्त उत्सर्पिणी काल का द्योतक है। ह्रासोन्मुख अवसर्पिणी-काल के छह विभाग निम्नानुसार है
1. सुषमा-सुषमा-इस काल में तीव्रतम पुण्य के उदय के अनुसार अनुकूलताओं की उत्कृष्टता मिलती है। यह काल भोग-प्रधान है। मनुष्यों और तिर्यंचों को अपने जीवन निर्वाह के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता है। सारी आवश्यकताओं की पूर्ति प्राकृतिक कल्पवृक्षों से होती है। इस काल में मनुष्यों की आवश्यकताएँ सीमित होती हैं और आकांक्षाएँ मर्यादित। इस काल में नर-नारी युगल रूप में जन्म लेते हैं तथा
काल की अवधारणा और काल-चक्र :: 25
For Private And Personal Use Only