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मनुष्यों में धार्मिक बुद्धि उपजती है। धर्म की आराधना कर जीव मोक्ष भी प्राप्त करने लगते हैं। नर से नारायण बनने की साक्षात् प्रक्रिया इसी काल में पूर्ण होती है । दुःख की अधिकता व अनुकूलता की कमी होने से यह काल दुःखमा - सुषमा कहलाता है। 42 हजार वर्ष कम एक कोड़ा - कोड़ी सागर का यह काल होता है । प्रारम्भ में मनुष्यों की आयु एक पूर्व कोटि एवं शरीर की ऊँचाई 525 धनुष होती है, जो घटती हुई काल के अन्त में क्रमशः 120 वर्ष और सात हाथ की रह जाती है ।
5. दुःषमा - यह पाँचवाँ काल है । सम्प्रति यही काल प्रवर्तमान है । यह काल 21,000 वर्ष मात्र का होता है । प्रारम्भ में मनुष्यों की आयु 120 वर्ष तथा ऊँचाई सात हाथ की होती है। मनुष्य अपनी आवश्यकताएँ बढ़ाता जाता है, लोभ लालच बढ़ जाता है, उपज कम होने लगती है । प्राकृतिक आपदाएँ भी होने लगती हैं। मनुष्य भोगीविलासी होने लगता है। धर्म की हानि होने लगती है। तीर्थंकर आदि महापुरुषों का अभाव हो जाता है। विशिष्ट ऋद्धि-सम्पन्न मुनिराज भी नहीं होते हैं, फिर भी कुछन-कुछ धर्म तो बना ही रहता है। मुनिराज स्वरूप - स्थिरता रूप सप्तम गुणस्थान तक ही जा पाते हैं, उससे ऊपर की श्रेणी में आरोहण का पुरुषार्थ नहीं कर पाते हैं। इस काल के अन्त में भी मुनिराज - आर्यिका श्रावक-श्राविका का संघ विद्यमान होगा। इस काल के अन्तिम पखवाड़े (fort night) के दिन पूर्वाह्न में धर्म का नाश होता है, मध्याह्न में राजा का नाश होता है और सूर्यास्त समय में अग्नि भी नष्ट हो जाती है । अन्तिम समय में मुनिराज वीरांगज, आर्यिका सर्वश्री, श्रावक अग्निदत्त और श्राविका पंगुश्री ( चतुर्विध संघ ) रहेंगे। राजा के द्वारा आहार पर शुल्क मांगे जाने पर वे मुनिराज दुषमाकाल के अन्त का सन्देशा देते हैं और अन्त में वे चारों संन्यास-मरण पूर्वक कार्तिक कृष्ण अमावश्या को यह देह छोड़कर सौधर्म स्वर्ग में देव होते हैं और अन्तिम 21वाँ कल्की राजा मरकर धर्मा नरक में पहुँचता है।
6. दुःषमा दुःषमा - यह काल भी 21,000 वर्ष का होता है । इस काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की आयु और ऊँचाई क्रमशः 20 वर्ष व दो हाथ की रहती है और अन्त में घटकर 15 वर्ष और एक हाथ की रह जाती है । जाति-पाँति, धर्म-कर्म, सब-कुछ का अभाव होता जाता है । मनुष्य की प्रवृत्ति अमानुषिक हो जाती है, मनुष्य पशुओं की तरह नग्न विचरण करने लग जाते हैं। मानवीय सम्बन्ध सम्पूर्णतः समाप्त हो जाते हैं। मनुष्य कच्चे मांस, मछली और कन्दमूल आदि का आहार करने लगते हैं। मनुष्य का आचरण पाशविक हो जाता है। इसके अन्तिम 49 दिनों में सात-सात दिनों तक सात प्रकार की कुवृष्टियाँ होती हैं, जिनसे सारी पृथ्वी नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है । प्रलय मच जाता है। इसमें सर्वेप्रथम सात दिनों तक अत्यन्त तीक्ष्ण संवर्तक वायु चलती है, जो वृक्ष व पर्वत- शिला आदि को चूर्ण कर देती है। इससे सात दिन तक भयंकर शीत पड़ती है। मनुष्य और तिर्यंच व्याकुल होकर विलाप करने लगते हैं। उस समय देव और विद्याधर दयार्द्र होकर 72 युगलों के साथ कुछ अन्य मनुष्यों और तिर्यंचों को
काल की अवधारणा और काल-चक्र :: 27
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