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जैन साधना में समत्वयोग का स्थान
केन्द्रीय तत्व है ।'
जैन साधना में समत्वयोग का जो स्थान एवं महत्त्व है उसे अनेक आधारों से पुष्ट किया जा सकता है। समत्वयोग या सामायिक की साधना का महत्त्व बताते हुए जैनाचार्यों ने अनेक उदाहरण दिये हैं । यथा
अर्थात् एक व्यक्ति प्रतिदिन लाख-लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान करता है और दूसरा समत्वयोग की साधना करता है । इन दोनों में स्वर्ण मुद्राओं का दान करने वाला व्यक्ति समत्वयोग की साधना की समानता नहीं कर सकता ।
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अर्थात् करोड़ों वर्षों तक सतत उग्र तपस्या करनेवाला साधक जिन कर्मों को नष्ट नहीं कर सकता, उन्हीं कर्मों को समभावपूर्वक साधना करने वाला साधक मात्र आधे ही क्षण में निर्जरित कर सकता है ।
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‘दिवसे दिवसे लक्खं, देइ सुवण्णस्स खंडियं एगो । एगो पुण सामाइयं, करेइ न पहुप्पए तस्स ।।
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चाहे कोई व्यक्ति कितना ही तीव्र तप तपे, जप जपे या मुनि अवस्था का धारण कर स्थूल क्रियाकाण्ड रूप चारित्र का पालन करे परन्तु समता भाव के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
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'तिव्वतवं तवमाणे, जं नवि निट्टवइ जम्मकोडीहिं । तं समभाविअचित्तो, खवेइ कम्मं खणाद्धेण । ।
'किं तिव्वेण तवेणं, किं च जवेणं किं चरित्तेण । समयाइ विण मुक्खो, न हु हुओ कहवि न हु होइ ।। "
'जे केवि गया मोक्खं, जे वि य गच्छन्ति जे गमिस्सन्ति । ते सव्वे सामाइय-पभावेण त्ति मुणेयव्वं ।।
'समदर्शी' पृ. ८६ ।
सामायिकसूत्र (अमरमुनि) पृ. ७७ से उदधृत् ।
वही ।
वही पृ. ७८ । सामायिकसूत्र (अमरमुनि) पृ. ७८ ।
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-वही ।
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