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जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना
हैं। सामायिक चारित्र का लक्ष्य राग-द्वेष अथवा क्रोध, मान, माया
और लोभ रूप कषायों की परिणति को अल्प करना है। सामायिक चारित्र का साधक राग-द्वेष और कषायों पर नियन्त्रण रखने का प्रयास करता है और उन्हें व्यक्त होने से रोकता है। यद्यपि अन्तर में उनका पूर्णतः अभाव नहीं होता है। सामायिक चारित्र दो प्रकार का है : (१) इत्वरकालिक - जो कुछ समय के लिए ग्रहण किया जाता है; और (२) यावत्कथित - जो सम्पूर्ण जीवन के लिए ग्रहण किया जाता है।
मूलाचार के अनुसार प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के समय इत्वरिक सामायिक नवदीक्षित मुनि को प्रदान की जाती है। बीच के २२ तीर्थंकरों के समय में उनको यावत्कथित सामायिक चारित्र ही देते थे - छेदोपस्थापनीय नहीं।
सामायिक चारित्र के बाद दूसरा स्थान छेदोपस्थापन चारित्र का है। हमारी दृष्टि में कषायों के इन आवेगों को उन्मूलित करने का जो प्रयत्न है; वही छेदोपस्थानपन चारित्र है। अन्तर स्थित कषायों को उन्मूलित कर आत्मा को समत्व में स्थापित करना, यही छेदोस्थानपन चारित्र का मूल लक्ष्य है। सामायिक चारित्र से छेदोस्थानपन चारित्र में कषायों के उन्मूलन के प्रयत्न अधिक तीव्र होते हैं। सामायिक चारित्र में जहाँ व्यक्ति कषायों की बाह्य अभिव्यक्ति को रोकता है; वहाँ छेदोपस्थानपन चारित्र में उनके मूल के उच्छेदन का प्रयास करता है। यद्यपि इस अवस्था में भी अन्तर में निहित कषायों की सत्ता पूर्णतः समाप्त नहीं होती, किन्तु वह क्षीण अवश्य होती है। जिस चारित्र के आधार पर श्रमण जीवन में वरिष्ठता और कनिष्ठता का निर्धारण किया जाता है; वह छेदोस्थापनीय चारित्र है। इस चारित्र में पूर्व पर्याय को छेद करके साधक को महाव्रत प्रदान किये जाते हैं।
चारित्र का तीसरा प्रकार परिहारविशुद्धि है। समत्वयोग की साधना की दृष्टि से हम उसे इस प्रकार व्याख्यायित कर सकते हैं : ‘कषायों के परिहार के द्वारा आत्मविशुद्धि का विशेष प्रयत्न करना।' परिहारविशुद्धि में व्यक्ति कषायों को जड़ से उन्मूलित करने का प्रयत्न करता है। विशिष्ट प्रकार की तप साधना आदि के द्वारा वह अपनी देहासक्ति को मिटाने का प्रयत्न करता है; क्योंकि
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