________________
३५०
जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
समयसार नाटक में बनारसीदासजी ने कहा है कि ज्ञान-चेतना मुक्ति-बीज है और कर्म-चेतना संसार का बीज है। लेकिन इसी चेतना के स्थान पर जैनदर्शन में 'उपयोग' शब्द का भी प्रयोग उपलब्ध होता है। तत्त्वार्थसूत्र में भी उपयोग (चेतना) के दो प्रकार बताये गए हैं :
(१) ज्ञानात्मक (ज्ञानोपयोग); और
(२) अनुभूत्यात्मक (दर्शनोपयोग)। . डॉ. कलघाटगी ने उपयोग शब्द में चेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पात्मक, इन तीनों ही पक्षों को समाहित किया है। वस्तुतः आदर्श जीवन की दृष्टि से आत्मा के इन तीनों पक्षों में सन्तुलन आवश्यक है। प्रो. सिन्हा ने भी आत्मा में इन तीनों पक्षों के सन्तुलन को आवश्यक माना है। क्योंकि इस सन्तुलन के अभाव में चित्त का समत्व भंग होता है। समत्व को बनाये रखने के लिए विवेक की आवश्यकता होती है। जहाँ चेतना या आत्मा है, वहाँ विवेक अवश्यम्भावी होता है। ऐसा कोई प्राणी नहीं होगा, जिसमें मूलतः विवेक का अभाव होगा। जैनदर्शन कहता है कि विवेक-क्षमता तो सभी में है, लेकिन प्रत्येक प्राणी में विवेक की योग्यता समान नहीं है। तनाव या द्वन्द्वग्रस्त प्राणी में विवेक-क्षमता तो है, किन्तु उसका उपयोग करने की योग्यता नहीं है। दूसरे शब्दों में विवेक का अस्तित्व सभी में है, लेकिन उसका प्रकटन सभी में समान रूप से सम्भव नहीं है। जैनदर्शन के अनुसार आत्मा में निहित विवेक-शक्ति का सम्यक् उपयोग नहीं करना ही तनाव और द्वन्द्व का सबसे बड़ा कारण है। जब आत्मा में विवेक-क्षमता का विकास होता है; तब इस द्वन्द्व का निराकरण करके समत्व स्थापित होता है।
चेतना का दूसरा उपयोग दर्शनोपयोग है। जब तक व्यक्ति में
१२ 'ज्ञान जीव की सजगता, कर्म जीव की भूल ।।
ज्ञान मोक्ष कौ अंकुर है, कर्म जगत् को मूल ।। ८५ ।। ज्ञान चेतना के जगे, प्रगटै केवलराम ।
कर्म चेतना मैं बसै, कर्म-बन्ध परिनाम ।। ८६ ॥' १३ तत्त्वार्थसूत्र २/६ । * 'Some Problems in Jain Psychology' Page 4.
-समयसार नाटक अध्याय १० ।
-Dr. Kalghatgi.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org