Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 406
________________ आधुनिक मनोविज्ञान और समत्वयोग १६ साम्प्रदायिक द्वन्द्व कहते हैं ।' ये सभी द्वन्द्व या विरोध दो पक्षों के विपरीत हित-अहित के कारण होते हैं । किन्तु मूल में कहीं त्याग बुद्धि का अभाव और स्वार्थ-साधना की प्रमुखता ही होती है । जैनदर्शन में द्वन्द्व के इन सभी स्तरों का क्रमशः विवेचन नहीं मिलता। जैनदर्शन ने अन्तरवैयक्तिक द्वन्द्व को ही अत्यधिक प्राथमिकता दी है। क्योंकि व्यक्ति के अन्तर में द्वन्द्व होगा, तो ही बाहर द्वन्द्वों का प्रकटन सम्भव होगा । शान्त मानस में द्वन्द्व का जन्म नहीं होता है । जैनदर्शन में द्वन्द्व के दो आयाम मिलते हैं: (१) आन्तरिक द्वन्द्व; और (२) बाह्य द्वन्द्व । जैनदर्शन कहता है कि जिसने अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त करली है, जो विभाव दशा से हटकर स्वभाव दशा में आ गया है, समत्व में अवस्थित हो गया है; वही आत्मा के शाश्वत् सुख अर्थात् मुक्ति को प्राप्त करता है । भगवान महावीर ने इसीलिए कहा था कि बाह्य युद्ध तो केवल निमित्त मात्र है; युद्ध करना है तो अपने आप से करो । वस्तुतः अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त करना ही कठिन है । जिस व्यक्ति ने आन्तरिक द्वन्द्व को उत्पन्न करने वाली कषायों की चौकड़ी समाप्त करली है, उसके बाह्य द्वन्द्व स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। अध्यात्म और बाह्य व्यवहार की एकरूपता ही जैनदर्शन का मूलभूत सिद्धान्त है । कहा गया है कि जो व्यक्ति अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को भी जान लेता है ।" इसी प्रकार जो व्यक्ति बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को भी जान लेता है । १७ इस प्रकार हम देखते हैं कि बाह्य द्वन्द्वों के द्वन्द्व हैं और आन्तरिक द्वन्द्वों के निमित्त बाह्य दोनों की सम्यक् समझ का विकास नहीं होगा, तब तक द्वन्द्वों से ऊपर नहीं उठा जा सकता है 1 मूल में आन्तरिक तथ्य हैं । जब तक १६ ३५३ 919 'द्वन्द्व और द्वन्द्व निवारण' श्रमण पत्रिका - अक्टो. - दिसम्बर १६६६ पृ. १-१३ । आचारांगसूत्र १/७/५७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only - डॉ. सुरेन्द्र वर्मा । www.jainelibrary.org

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