Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 413
________________ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना भावना की विरोधी हैं; किन्तु जब जीवन में अनासक्ति और अपरिग्रह की दृष्टि विकसित होती है, तब सम्पन्नता वैयक्तिक उपभोग का कारण नहीं बनती है। साथ ही व्यक्ति में ट्रस्टीशिप की भावना का विकास होता है और उसके द्वारा आर्थिक क्षेत्र के द्वन्द्व भी समाप्त हो जाते हैं। वस्तुतः जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना व्यक्ति की भाव भूमि की विशुद्धता की साधना है। जब व्यक्ति में प्राणीमात्र के प्रति मैत्री भाव, गणिजनों के प्रति आदरभाव, दुःखियों के प्रति करुणा या सेवा का भाव और विरोधियों के प्रति तटस्थ भाव विकसित होता है, तो द्वन्द्व अपने आप समाप्त हो जाते हैं। एक दूसरी दृष्टि से कहें तो समत्वयोग की साधना के द्वारा जब व्यक्ति अपने में क्षमा, सरलता, विनय और सन्तोष जैसे सद्गुणों का विकास करता है; तब द्वन्द्वों के उत्पन्न होने के कारण ही समाप्त हो जाते हैं। इन गुणों की साधना ही समत्वयोग की साधना है और यह समत्वयोग की साधना ही द्वन्द्वों के निराकरण का उपाय है। डॉ. सागरमल जैन कहते हैं कि “समत्वयोग का तात्पर्य चेतना का संघर्ष या द्वन्द्व से ऊपर उठ जाना है। यह जीवन के विविध पक्षों में एक ऐसा सांग सन्तुलन है जिसमें न केवल चैतसिक एवं वैयक्तिक जीवन के संघर्ष समाप्त होते हैं, वरन् सामाजिक जीवन के संघर्ष भी समाप्त हो जाते हैं। शर्त यह है कि समाज के सभी सदस्य उसकी सामूहिक साधना में प्रयत्नशील हों।"२० ।। षष्ठम अध्याय समाप्त ।। २० 'जैन, बौद्ध और गीता का साधनामार्ग' पृ. १६-१७ । -डॉ. सागरमल जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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