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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
में हिन्दू धर्म-दर्शन समत्वयोग की आधारशिला प्रस्तुत करता है। मित्रता का भाव शत्रुता का उपशमन करता है और इस दृष्टि से वह समत्व की संस्थापना का आधार बिन्दु है। इसी प्रकार ईशावास्योपनिषद् का यह कथन है कि जो व्यक्ति सभी प्राणियों को अपने में और अपने को सभी प्राणियों में देखता है, वह अपनी इस एकात्मकता की अनुभूति के कारण किसी से घृणा नहीं करता। घृणा या विद्वेष के उन्मूलन की उपनिषद् की यह युक्ति निश्चय ही हिन्दू धर्म में समत्वयोग की जीवन दृष्टि की प्रतिष्ठा का आधार वाक्य कहा जा सकता है। न केवल वेद और उपनिषद् अपितु महाभारत और गीता में समत्वयोग के अनेक सन्दर्भ प्रस्तुत हैं। हम पूर्व में यह बता चुके हैं कि गीता के अनुसार तो समत्वयोग की साधना में ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग अनुस्यूत रहे हुए हैं। गीता में समत्वयोग को ही सारभूत योग माना गया है। समत्वयोग ही गीता का साध्य योग है। इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए डॉ. सागरमल जैन ने विस्तार से चर्चा की है। यहाँ हम उसे ही संक्षिप्त में प्रस्तुत कर रहे हैं। वे लिखते हैं कि ज्ञान, कर्म, भक्ति और ध्यान सभी समत्व के लिए होते हैं। गीता यह बताती है कि बिना समत्व के ज्ञान यथार्थ ज्ञान नहीं बनता है। जो समत्व दृष्टि रखता है, वही ज्ञानी है। उसी प्रकार बिना समत्व के कर्म अकर्म (कर्मयोग) नहीं बनता है। समत्व के अभाव में कर्म का बन्धकत्व बना रहता है। गीता के शब्दों में जो सिद्धि और असिद्धि में समत्व से युक्त होता है, उसे कर्म नहीं बन्धते। इसी प्रकार वह भक्त भी सच्चा भक्त नहीं है, जिसमें समत्व का अभाव है। समत्व वह शक्ति है जिससे ज्ञान ज्ञानयोग के रूप में, भक्ति भक्तियोग के रूप में और कर्म कर्मयोग के रूप में बदल जाता है। गीता समत्व प्रतिपादक ग्रन्थ है, इस तथ्य पर बल देते हुए आगे वे कहते हैं कि गीता के अनुसार मानव का साध्य परमात्मा की प्राप्ति है। गीता में परमात्मा या ब्रह्म सम है। वस्तुतः जो समत्व में स्थित है वह ब्रह्म में स्थित है, क्योंकि सम ही ब्रह्म है। गीता की दृष्टि में परमयोगी वह है जो सर्वत्र समत्व का दर्शन करता है। यदि हम
६ 'यस्तु सर्वाणि भूतात्यात्मन्येवानुपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ।।'
-ईशावास्योपनिषद् ६ ।
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