Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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उपसंहार
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(१) वृत्ति में अनासक्ति; (२) व्यवहारिक जीवन में असंग्रह; और (३) विचार में अनाग्रह;
(४) सामाजिक आचरण में अहिंसा। वस्तुतः अनाग्रह अनेकान्त का ही एक रूप है। असंग्रह और अनासक्ति अपरिग्रह के सूचक हैं और अहिंसा समत्वपूर्ण व्यवहार का सिद्धान्त है। इसीलिए वह कहते हैं कि वृत्ति में अनासक्ति, विचार में अनेकान्त या अनाग्रह, वैयक्तिक जीवन में असंग्रह और सामाजिक जीवन में अहिंसा - यही समत्वयोग की साधना का व्यवहारिक पक्ष है। समत्वयोग की साधना नामक चतुर्थ अध्याय में हमने इस सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की है। मात्र यही नहीं, हमने यह बताने का प्रयास किया है कि प्राणियों के प्रति मैत्री, गणीजनों के प्रति प्रमोद, दुःखियों के प्रति करूणा और विरोधियों के प्रति उपेक्षा के चार सूत्र वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में समत्वयोग की सार्थकता को अभिव्यक्त करते हैं। इस अध्याय में हमने यह बताने का भी प्रयास किया है कि सामाजिक वैषम्य के निराकरण के लिए अहिंसा, आर्थिक वैषम्य के निराकरण के लिए
अपरिग्रह और मानसिक वैषम्य के निराकरण के लिए अनासक्ति कितनी उपयोगी है।
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के पंचम अध्याय में हमने विभिन्न धर्मों में समत्वयोग की साधना किस रूप में प्रस्तुत की गई है, इसका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेखित किया है कि समत्वयोग की साधना के तत्व जैन धर्म के साथ-साथ हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म में भी पाये जाते हैं। हिन्दू धर्म के वेद, उपनिषद्, महाभारत, गीता तथा भागवत् आदि पुराण-साहित्य में समत्वयोग की अति विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। वेदों का यह कथन है कि हम सभी को मित्रता की आँख से देखें और सभी हमें भी मित्रता की दृष्टि से देखें। इसी रूप
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'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. १६-२० ।
-डॉ सागरमल जैन। 'मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् मित्रस्याह्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ।'
-यजुर्वेद ३६/१८ ।
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