Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 420
________________ उपसंहार ३६७ गीता की शिक्षा का विचार करें तो कह सकते हैं कि उसमें अनेक स्थलों पर समत्वयोग की शिक्षा दी गई है, जिसका विस्तृत उल्लेख डॉ. सागरमल जैन ने किया है। 'समत्वयोग का तुलनात्मक अध्ययन' नामक पंचम अध्याय में हमने भी गीता की कुछ शिक्षाओं को प्रस्तुत किया है। न केवल हिन्दू धर्म-दर्शन में अपितु बौद्धदर्शन में भी समत्वयोग के विपुल सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं। बौद्ध धर्म-दर्शन का मुख्य लक्ष्य दुःख निवृत्ति है। वह दुःख का मूल कारण तृष्णा को मानता है और दुःख निवृत्ति के लिए तृष्णा के उच्छेद को आवश्यक मानता है। तृष्णा के उच्छेद की यह बात मूलतः समत्व की उपलब्धि को ही अभिव्यक्त करती है। संयुक्तनिकाय में बुद्ध ने कहा है कि आर्यों का मार्ग सम है, आर्य विषम परिस्थिति में भी सम का आचरण करते हैं। बौद्धदर्शन में राग-द्वेष से ऊपर उठने की बात कही गई है। वह भी इसी तथ्य को अभिव्यक्त करती है कि बुद्ध का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति को मानसिक तनावों और विक्षोभों से मुक्त करना है। उन्होंने तृष्णा को ही दुःख का मूल कारण बताया है और अपने समस्त चिन्तन में दुःख से विमुक्ति के लिए समत्व की उपलब्धि का ही उपदेश दिया है। बौद्धदर्शन में भी मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चार ब्रह्म विहारों का उल्लेख मिलता है। जिन्हें हम समत्वयोग रूपी भवन के चार स्तम्भ कह सकते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि समत्वयोग न केवल जैन धर्म-दर्शन का, अपितु बौद्ध और हिन्दू धर्म-दर्शन का भी मुख्य प्रतिपाद्य विषय रहा है। 'समत्वयोग का तुलनात्मक अध्ययन' नामक पंचम अध्याय में हमने जैनदर्शन के समत्वयोग की तुलना गीता के स्थितप्रज्ञ से की है। इसमें हमने यह देखा है कि जो जैनदर्शन का वीतराग, सयोगी केवली या समत्वयोगी है; वही गीता का स्थितप्रज्ञ है। प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के अन्तिम अध्याय में हमने समत्वयोग पर आधुनिक मनोविज्ञानिक दृष्टि से विचार किया है और यह पाया है कि आधुनिक मनोविज्ञान में भी आकांक्षाओं के उच्च स्तर को 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. १२-१३ । -डॉ सागरमल जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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