Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 412
________________ आधुनिक मनोविज्ञान और समत्वयोग ३५६ में दूसरे पक्ष के विरोधी आचरण के बावजूद उसके लिए एक सकारात्मक दृष्टि को बनाये रखें। हम उसके व्यवहार को भले ही अच्छा न समझें और उसे अस्वीकार कर दें; पर मानव होने के नाते उसे जो प्रतिष्ठा और सम्मान मिलना चाहिये, उससे उसे वंचित न करें। न्यायप्रियता का अर्थ है हम अपने प्रति ईमानदार हों और जो भी कहें या करें, उसे अनावश्यक रूप से गुप्त न रखें। हमारा व्यवहार पारदर्शी हो। उसमें हम केवल एक ही पक्ष के हित पर विचार न करें। द्वन्द्व के निराकरण हेतु यह भी आवश्यक है कि किसी भी हालत में हम दूसरे पक्ष से अपना सम्पर्क पूरी तरह तोड़ न लें। परिस्थिति को इस प्रकार ढालें कि एक सकारात्मक सम्बन्ध बना रह सके और दूसरा पक्ष हमारी बात सुनने/समझने के लिए तत्पर रहे। द्वन्द्व और तनाव से परिपूर्ण परिस्थितियों के दबाव में हम अक्सर एक प्रकार के मानसिक प्रमाद से ग्रस्त हो जाते हैं और उन संसाधनों के प्रति जिनका हम द्वन्द्व निराकरण के लिए उपयोग कर सकते हैं। प्रायः उदासीन हो जाते हैं। अतः यह आवश्यक है कि हम द्वन्द्व के निराकरण के प्रति अपनी पूरी जागरुकता बनाए रखें और अपनी सभी योग्यताओं और क्षमताओं का इस दिशा में पूरा-पूरा उपयोग कर सकें। यही साधन-सम्पन्नता है। इस चर्चा में अन्तिम रचनात्मक वृत्ति है। जब तक हम रचनात्मक वृत्ति को नहीं अपनाते द्वन्द्व का निराकरण असम्भव है। किसी भी पक्ष के लिए यह आवश्यक है कि वह इस बात के प्रति आश्वस्त हो कि द्वन्द्व का निराकरण, यदि उचित प्रबन्ध किया जाय तो अवश्य हो ही जाएगा। यह रचनात्मक वृत्ति द्वन्द्व से निपटने के लिए बहुत सहायक होती है। वस्तुतः डॉ. सुरेन्द्र वर्मा ने कैट्स और लॉयर के द्वन्द्व निराकरण के उपायों के आधार पर उपरोक्त जिन चार सूत्रों को प्रस्तुत किया है उसमें समानता और न्यायप्रियता का आधार अहिंसा का सिद्धान्त है। सौहार्दपूर्ण सम्पर्क के मूल में अनाग्रह दृ ष्टि या अनेकान्त दृष्टि निहित है। साधन सम्पन्नता एवं रचनात्मक वृत्ति के मूल में हम अपरिग्रह की अवधारणा को देख सकते हैं। यद्यपि यहाँ ऊपरी स्तर पर देखने में ऐसा लगेगा कि साधन सम्पन्नता और रचनात्मक वृत्ति अपरिग्रह और अनासक्ति की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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