Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 409
________________ ३५६ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना द्वन्द्व, संघर्ष, युद्ध या विरोध से ऊपर उठ गये हैं; ऐसे जाग्रत व्यक्ति ही वस्तुतः वीर हैं, समत्वयोगी हैं।" ___यदि व्यक्ति में अपने लाभ की इच्छा और दूसरों को हानि पहुँचाने का भाव हो; तो द्वन्द्व की स्थिति निर्मित हो जाती है। किन्तु यदि व्यक्ति राग-द्वेष या लाभ-अलाभ से ऊपर उठकर समभाव की स्थिति में रहता है; तो द्वन्द्व का निर्माण नहीं हो सकता। किन्तु जब व्यक्ति एकांगी दृष्टिकोण अर्थात् दूसरे की हानि में अपना लाभ देखता है; तो द्वन्द्व का शिकार हो जाता है। जैनदर्शन ने सदैव ही एकांगी दृष्टि का खण्डन किया है और एकांगी दृष्टि के त्याग में ही द्वन्द्व का निराकरण माना है। द्वन्द्व की स्थिति में चित्त में सदैव कोई न कोई उद्वेग उत्पन्न होते रहते हैं। इन उद्वेगों के परिणामस्वरूप चित्त विकल या उद्वेलित बना रहता है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। मनोविज्ञान यह मानता है कि जब तक चित्त में इच्छा, आकांक्षा और वासना जीवित रहती है; वह हमारे मानसिक सन्तुलन अर्थात् समत्व को भंग करती रहती है। इसीलिए विक्षोभों और तनावों से मक्त होने के लिए इच्छाओं व आकांक्षाओं से ऊपर उठना होगा और परिस्थितियों के साथ समरस होकर एक ऐसा जीवन जीने का प्रयास करना होगा, जिसमें चित्त विकलताओं से रहित बन सके। इस स्थिति को उपलब्ध करने के लिए व्यक्ति को भूत और भविष्य में जीने की प्रवृत्ति को छोड़कर वर्तमान में जीने का अभ्यास करना होगा। जैनदर्शन के अनुसार पूर्व कर्म के उदय के निमित्त से और जैसा ज्ञानियों ने ज्ञान में देखा है; वैसा घटित होता है। जब इस प्रकार की जीवन दृष्टि का विकास होता है; तो व्यक्ति इच्छाओं-आकांक्षाओं से ऊपर उठकर वर्तमान में जीने का प्रयास करता है। इसी बात को हिन्दू परम्परा में इस प्रकार कहा गया है कि जो कुछ होता है वह प्रभु इच्छा से होता है। अतः व्यक्ति को न तो भविष्य के लिए सपने संजोने चाहिए और न ही भूत की स्थितियों से संक्लेशित होना चाहिये। वर्तमान में स्थित होकर जीवन जीने का अभ्यास ही एक ऐसा उपाय है, जिसके माध्यम से व्यक्ति विक्षोभों और तनावों से मुक्त हो सकता है। यदि घटनाओं को प्रभु १८ आचारांगसूत्र १/३/१/१ एवं १/३/१/८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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