Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 405
________________ ३५२ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना व्यक्ति के मध्य अथवा व्यक्ति और समाज के मध्य चलता रहता है तथा कुप्रवृत्तियों को जन्म देकर व्यक्ति की जीवन-प्रणाली दूषित बनाता है तथा उसके समभाव या समत्व को भंग करता है। (३) बाह्य वातावरण के मध्य होने वाले संघर्ष : ये विविध समाजों एवं राष्ट्रों के मध्य होते हैं। इनके कारण बाह्य एवं आन्तरिक शान्ति भंग हो जाती है और असुरक्षा के भाव का जन्म होता है। डॉ. सागरमल जैन ने द्वन्द्व या संघर्ष के उपरोक्त तीन प्रकारों की चर्चा की है। डॉ सुरेन्द्र वर्मा ने अपने लेख 'द्वन्द्व और द्वन्द्व निवारण' में मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय आधार में द्वन्द्वों के विभिन्न रूपों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है : । (१) आन्तरवैयक्तिक द्वन्द्व : आन्तरवैयक्तिक द्वन्द्व मानसिक या मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व है। इस प्रकार के द्वन्द्व को व्यक्ति अपनी परस्पर विरोधी या असंगत इच्छाओं/वृत्तियों के बीच अनुभव करता है। उदाहरण के लिए जब व्यक्ति अपनी इच्छा की सन्तुष्टि चाहता है और इतर कारणों से यदि उसे सन्तुष्ट नहीं कर पाता है, तब वह ऐसे द्वन्द्व या संघर्ष में फँस जाता है। ऐसे मानसिक या मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व चित्त को उद्वेलित करते रहते हैं। जिससे व्यक्ति आन्तरिक रूप से टूट जाता है। वह सम्यक् प्रकार से सोच नहीं पाता है। (२) सामुदायिक द्वन्द्व : व्यक्ति और समूह के बीच जो द्वन्द्व होता है, उसे सामुदायिक द्वन्द्व कहा जाता है। (३) अन्तर-सामुदायिक द्वन्द्व : दो समुदायों के बीच जो द्वन्द्व होता है; वह अन्तर-सामुदायिक द्वन्द्व है। (४) संगठनात्मक द्वन्द्व : व्यक्ति और जिस संगठन में व्यक्ति कार्य करता है, उसके बीच जो संघर्ष होता है; वह संगठनात्मक द्वन्द्व है। (५) अन्तर-संगठनात्मक द्वन्द्व : दो संगठनों के मध्य जो द्वन्द्व होते हैं; वे अन्तर-संगठनात्मक द्वन्द्व हैं। (६) साम्प्रदायिक द्वन्द्व : दो सम्प्रदायों के बीच के द्वन्द्व को १५ 'जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. ४०७ । -डॉ. सागरमल जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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