________________
अध्याय ५
समत्वयोग का तुलनात्मक अध्ययन
५.१ उपनिषदों में समत्वयोग ___भारतीय दर्शन में अध्यात्मवाद का प्रतिपादन करने वाले ग्रन्थों में प्राचीनतम उपनिषद् माने गये हैं। उपनिषदों में ईशावास्योपनिषद् प्राचीनतम है। इस उपनिषद् के प्रारम्भ में ही समत्वयोग की साधना का सुन्दर निर्देश उपलब्ध होता है। उसमें कहा गया है कि यह समस्त विश्व ईश्वर में अधिष्ठित है। वैश्विक सम्पदा पर किसी भी व्यक्ति विशेष का स्वामित्व नहीं है। अतः व्यक्ति को त्यागपूर्वक भोग करना चाहिए।' ईशावास्योपनिषद् के इस प्रथम श्लोक में ही समत्वयोग का सार समाया हुआ है। समत्वयोग का सार यही है कि व्यक्ति संसार में अनासक्त भाव से जिये और ईशावास्योपनिषद् त्यागपूर्वक भोग का सन्देश देकर उसी अनासक्ति का प्रतिपादन करता है। व्यक्ति की चेतना में जो भी वैषम्य या तनाव उत्पन्न होता है, उसका कारण राग या आसक्तिं ही है। राग या आसक्ति तोडने के लिए ईशावास्योपनिषद् में यह कहा गया है कि त्यागपूर्वक भोग करो क्योंकि यह धन या सम्पदा किसी की नहीं है। इसमें आसक्ति मत रखो।
अन्यत्र इसी उपनिषद् में समत्वयोग की शिक्षा देते हुए यह कहा गया है कि जो सभी प्राणियों को अपने में और अपने को सभी प्राणियों में देखता है अर्थात् सभी को आत्मवत् देखता है; ऐसे समत्वयोगी को मोह और क्षोभ नहीं होता। सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि समत्वयोग का मूल आधार है और प्रस्तुत उपनिषद् भी इसी तथ्य को प्रस्तुत करता है।
' ईशावास्योपनिषद १।
वही ६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org