Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 387
________________ ३३६ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना आभूषणों को भी क्यों न धारण कर ले; फिर भी श्रमण है, भिक्षुक है।६३ यह विचार उत्तराध्ययन के इस कथन की पुष्टि करता है कि समता से ही श्रमण कहा जाता है। जैन विचारणा में 'सम' का अर्थ कषायों का उपशम है। इस अर्थ में भी बौद्ध विचारणा समत्वयोग का समर्थन करती है। मज्झिमनिकाय में कहा गया है कि राग-द्वेष एवं मोह का उपशम ही परम आर्य उपशम है। इस प्रकार बौद्ध और जैन परम्पराओं में समता का आचरण करने वालों को समान रूप से ही श्रमण माना गया है।६५ समत्व का अर्थ आत्मवत् दृष्टि स्वीकार करने पर भी बौद्ध विचारणा में उसका स्थान निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है। सुत्तनिपात में कहा गया है - "जैसा मैं हूँ, वैसे ही जगत् के सभी प्राणी हैं। इसलिए सभी प्राणियों के प्रति अपने समान आचरण करना चाहिये।" समत्व का अर्थ राग-द्वेष का प्रहाण या राग-द्वेष की शून्यता करने पर भी बौद्ध विचारणा में समत्वयोग का महत्त्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। उदान में कहा गया है कि राग-द्वेष और मोह का क्षय होने से ही निर्वाण प्राप्त होता है। बौद्धदर्शन में वर्णित चार ब्रह्म विहार अथवा भावनाओं में भी समत्वयोग का चिन्तन परिलक्षित होता है। मैत्री, करुणा, मुदिता (प्रमोद) और माध्यस्थ्य भाव - इनमें प्रथम तीन स्पष्ट हैं। माध्यस्थ्य भावना या उपेक्षा के लिए सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय और लौह-कांचन में समभाव रखना आवश्यक है। वस्तुतः बौद्धदर्शन जिस माध्यस्थ्यवृत्ति पर बल देता है, वह समत्वयोग ही है। ५.३ जैनदर्शन में समत्वयोगी और गीता के स्थितप्रज्ञ का तुलनात्मक अध्ययन जैन साधना में जीवन का परम सार वीतरागता की उपलब्धि को कहा गया है। वस्तुतः वीतराग दशा पूर्ण समत्व की अवस्था है! पूर्व में हमने इस तथ्य को स्पष्ट किया है कि समत्व राग-द्वेष से धम्मपद १४२ । ६४ मज्झिमनिकाय ३/४०/२ । धम्मपद ३८८ । -तुलना कीजिये उत्तराध्ययन २५/३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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