Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

View full book text
Previous | Next

Page 390
________________ समत्वयोग का तुलनात्मक अध्ययन ३३७ ऊपर उठने पर ही उपलब्ध होता है। जो राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है; वही वीतराग या समत्वयोगी कहलाता है, क्योंकि उसके जीवन में ही समत्व पूर्ण रूप से साकार होता है। जैनागमों में वीतरागता के लक्षण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो ममत्व एवं अहंकार से रहित है, जिसके चित्त में किसी प्रकार की आसक्ति नहीं है, जो मान-अपमान की स्थिति में भी विचलित नहीं होता है और प्राणीमात्र के प्रति समभाव रखता है; वही वीतराग या समत्वयोगी है।६ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जो लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, मान-अपमान और निन्दा-प्रशंसा में समभाव रखता है; वही समत्वयोगी या सामायिक का साधक है। जिसे इस लोक या परलोक में किसी भी पदार्थ की अपेक्षा नहीं है, जो इच्छाओं और आकांक्षाओं से ऊपर उठ गया है, जो चन्दन का लेप करने वाले और वसूली से छीलने वाले दोनों के प्रति समभाव रखता है अर्थात् न चन्दन का लेप करने वाले पर प्रसन्न होता है और न वसूली से शरीर को छीलने वाले पर आक्रोश करता है; वही समत्वयोगी है। जिस प्रकार अग्नि में तपकर सोना निर्मल होता है, उसी प्रकार आत्मा समभाव की साधना से निर्मल होती है। जिस प्रकार कमल कीचड़ और पानी में उत्पन्न होकर भी उनमें लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो संसार में रहते हुए भी सांसारिक विषय-वासनाओं में लिप्त नहीं होता; वही समत्वयोगी है। उत्तराध्ययनसूत्र के ३३वें अध्ययन में समत्वयोगी की जीवन शैली कैसी होती है, इसका विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। उसमें कहा गया है कि जब तक इन्द्रियाँ हैं इन्द्रियों के विषयों से सम्पर्क होता ही है। वस्तुतः विरक्त आत्मा, अनासक्त पुरुष या समत्वयोगी वही है जो इन्द्रियों के विषयों के उपलब्ध होने पर भी न अनुकूल के प्रति राग करता है और न प्रतिकूल के प्रति द्वेष करता है। वस्तुतः ऐन्द्रिक विषय की अनुभूति पतन का कारण नहीं है। व्यक्ति के पतन का कारण इन ऐन्द्रिक विषयों के प्रति राग-द्वेष का भाव ६६ 'जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. ४१६ । -डॉ सागरमल जैन । ६७ उत्तराध्ययनसूत्र १६/६०-६३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434