Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 393
________________ ३४० जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना आत्म-प्रशंसा की अपेक्षा नहीं रखता है, जो गर्व से रहित है, जिसके वचन संयमित हैं, जिसको प्रिय वस्तु के प्रति कोई आसक्ति नहीं है और अप्रिय वस्तु के प्रति कोई घृणा नहीं है, जो स्वभाव से शान्त एवं प्रतिभाशाली है और जो न तो किसी के प्रति आसक्त है और न किसी के प्रति उदास - समभाव में रहता है; वही अर्हत् है।०३ ५.५ गीता के स्थितप्रज्ञ के लक्षण ___वस्तुतः जिसे जैनदर्शन समत्वयोगी या वीतराग कहता है और बौद्धदर्शन में जिसे अर्हत कहा गया है, उसे ही गीता में स्थितप्रज्ञ कहा गया है। स्थितप्रज्ञ का तात्पर्य है, जिसकी प्रज्ञा अर्थात् विवेक राग-द्वेष के आवेगों से विचलित नहीं होता, जो अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समभाव रखता है; उसे ही स्थितिप्रज्ञ कहते हैं। जिस प्रकार निर्वात दशा में रही हुई दीपक की लौ विचलित नहीं होती, उसी प्रकार जिसकी विवेक बुद्धि अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों में सम बनी रहे; उसे ही स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।०४ गीता के दूसरे एवं बारहवें अध्याय में स्थितप्रज्ञ के लक्षणों का विस्तार से वर्णन किया गया है। हम यहाँ उसे मूल ग्रन्थ के आधार पर प्रस्तुत कर रहे हैं। गीता में श्रीकृष्ण स्थितप्रज्ञ का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि “जब व्यक्ति मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं का परित्याग कर देता है और जो 'स्व' आत्मा की रमणता में सन्तुष्टि मानता है; दुःखों की प्राप्ति में भी जो उद्विग्न नहीं होता तथा सुखों के प्रति जिसके मन में कोई स्पृहा नहीं होती; जो राग-द्वेष एवं ईर्ष्या से रहित निर्द्वन्द्व एवं सिद्धि असिद्धि में समभाव से युक्त है; जीवन के सामान्य व्यापारों को करते हुए भी बन्धन में नहीं आता; जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता रहित, अहंकार रहित और १०३ सुत्तनिपाक ४८/२-६, ६-१० । १०४ 'यथा दीपो निवातस्थो नेगते सोपमा स्मृता । योगिनो यतचित्तस्य युजतो योगमात्मनः ।। १६ ।।' -गीता अध्याय ६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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