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समत्वयोग का तुलनात्मक अध्ययन
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उपशान्त आदि नामों से भी जाना जाता है।६६ धम्मपद एवं सुत्तनिपात में अर्हत् के जीवनादर्श का निम्न विवरण उपलब्ध होता है।
धम्मपद में अर्हत्-वर्ग में कहा गया है कि “जो पृथ्वी के समान गम्भीर हो, जो इन्द्र के स्तम्भ के समान अपने व्रत में अचल हो, जिसका चित्त निर्मल हो, जिसकी वासनाएँ शान्त हो गई हों, जिसकी बुद्धि समत्व का आचरण करती हो, जो संयम एवं ब्रह्मचर्य का पालन करता हो, जिसका व्यवहार प्रत्येक जीवात्मा के प्रति मैत्रीपूर्ण हो, जिसने संसार अर्थात् जन्म-मरण का चक्र समाप्त कर दिया हो; ऐसा व्यक्ति चाहे वह आभूषणों को धारण करने वाला गृहस्थ ही क्यों न हो - वस्तुतः वह श्रमण है, भिक्षुक है।००
बुद्ध का पहला धर्मोपदेश 'धम्मचक्कपवत्तनसुत्त' में मिलता है। इसमें उन्होंने चार आर्य-सत्यों को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “दुःख है; दुःख का कारण है; दुःख का निरोध सम्भव है और दुःख निरोध का मार्ग है।" ।
बौद्ध धर्म श्रमण, ब्राह्मण या भिक्षु सबके लिए समता को अनिवार्य मानता है। जो समभाव में रहता है, संयम और ब्रह्मचर्य का पालन करता है, शान्त एवं दमनशील है, जिसने दण्ड का त्याग कर रखा है; वही ब्राह्मण है - वही श्रमण एवं भिक्षु है।' बुद्ध कहते हैं “प्राणीमात्र को अपने समान जानकर न तो स्वयं उसको दुःखी करो और न ही दूसरों को दुःख देने की प्रेरणा दो; क्योंकि अपना जीवन सबको प्रिय है एवं दण्ड की मार से सभी घबराते हैं।"
बुद्ध फिर आगे कहते हैं “जो शरीर के त्यागने के पूर्व ही तृष्णा से रहित हो गया हो, जिसने क्रोध को जीत लिया हो, जो
६६ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. ४१७ ।
-डॉ. सागरमल जैन । १०० धम्मपद ६४-६७ । १०१ 'अलंकतो चे पि समं चरेय्य सन्तो दन्तो नियतो ब्रह्मचारी ।
सब्वेसु भूतेषु निधाय दण्डं सो ब्राह्मणो समणो स भिक्खु ।। १४२ ।।' -धम्मपद । १०२ 'सव्वे तसन्ति दंडस्स सव्वेसं जीवनं पियं । अप्पाणं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये ।।'
-वही ।
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