Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 385
________________ ३३४ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना जो कुछ मिल जाता है, उसी पर सन्तोष करता है;८३ जो निर्लोभ, व्यथारहित और जितेन्द्रिय है; जिसको न तो कुछ करने से प्रयोजन है और न कुछ न करने से ही प्रयोजन है, जिसकी इन्द्रियाँ और मन कभी चंचल नहीं होते; जिसका मनोरथ पूर्ण हो गया है जो समस्त प्राणियों पर समान दृष्टि और मैत्रीभाव रखता है; मिट्टी के ढेले, पत्थर और स्वर्ण को एकसा समझता है; जिसकी दृष्टि में प्रिय और अप्रिय का भेद नहीं है; जो धीर है और अपनी निन्दा तथा स्तुति में सम रहता है; जो सम्पूर्ण भोगों में स्पृहा रहित है; जो दृढ़तापूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित है तथा जो सब प्राणियों में हिंसाभाव से रहित है - ऐसा समत्वयोगी या ज्ञानी संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है। मात्र यही नहीं कि महाभारत में केवल वैयक्तिक स्तर पर समत्वयोग की बात कही गयी है, अपितु सामाजिक जीवन में भी समत्व को महत्त्व दिया है। महाभारत के आश्वमेधिक पर्व के प्रथम अध्याय में राजा को यह निर्देश दिया गया है कि वह सभी प्राणियों (प्रजाजनों) के प्रति समभाव का बर्ताव करे। इस प्रकार महाभारत में न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से समत्व की चर्चा है, अपित व्यवहार के स्तर पर भी वह समभाव की स्थापना पर बल देता है; क्योंकि जो जितात्मा सभी प्राणियों के प्रति समभाव का व्यवहार करता और ममतारहित होता है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं होता। इस प्रकार महाभारत सामाजिक जीवन में समत्व की ८३ 'समः सर्वेषु भूतेषु ब्राह्माणमभिवर्तते । नैवेच्छति न चानिच्छो यात्रामात्रव्यवस्थितः ।। ३६ ।।' -महाभारत शान्तिपर्व २६ । 'अलोलुपोऽव्यथो दान्तो न कृती न निराकृतिः । नास्येन्द्रियमनकाग्रं न विक्षिप्त मनोरथः ।। ३७ ।।' -वही अध्याय ३४ । 'सर्वभूतसद्दऽमैत्रः समलोष्टाश्मकांचनः । तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति ।। ३८ ।।' -वही । ८६ 'अस्पृहः सर्व कामेभ्यो ब्रह्मचर्यद्दढ़व्रतः । अहिंस्नः सर्वभूतानामीद्दक् सांख्योविमुच्चते ।। ३६ ।।' -चही। ८७ 'समं सर्वेषु भूतेषु वर्तमानं नराधिप । अनु जीवन्तु सर्वे त्वां ज्ञातयो भ्रातभिः सह ।। ७ ।।' -वही अश्वमेघपर्व अध्याय १ । 'सभस्य सर्वभूतेषु निर्ममस्य जितात्मनः । समन्तात् परिमुक्तस्य न भयं विद्यते कचित् ।। २४ ।।'- महाभारत अश्वमेघपर्व अध्याय २८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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