________________
३२४
जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
यही चित्त की विषमता है। अतः जो परमतत्त्व को प्राप्त कर लेता है, वही समत्व को प्राप्त कर लेता है।४ ज्ञानवान पुरुष वही है, जो सम्पूर्ण दृश्य जगत् को निर्विशेष चित्त रूप मानता हो। वही शिव है; वही ब्रह्मा है; वही विष्णु है और वही समत्वयोगी है।५ महोपनिषद् में कहा गया है कि समत्वयोग से युक्त व्यक्ति सदैव यही विचार करता है कि मैं क्षीणकाय नहीं हूँ; मैं दुःखों से ग्रस्त भी नहीं हूँ और मैं शरीरधारी भी नहीं हूँ वरन् मैं आत्मबल में प्रतिष्ठित हूँ - मुझे किसी का बन्धन नहीं है।२६ मैं मांस नहीं हूँ; अस्थि नहीं हूँ - ऐसा द्दढ़ निश्चय करने वाला व्यक्ति ही मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार अनात्म में आत्म बुद्धि का त्याग कर व्यक्ति समत्व को प्राप्त करता है।
_ जिसे ब्रह्म पद की प्राप्ति या समत्व की उपलब्धि की लालसा जाग्रत हो जाती है, उसमें तेरा-मेरा और अपने-परायेपन की संकीर्णता समाप्त हो जाती है। जिन्होंने संकल्प-बन्धन को काट दिया है और जिसकी चित्त की चंचलता समाप्त हो गई है, उसने महान् पद को उपलब्ध कर लिया है। ऐसे साधक ही समत्व को प्राप्त करते हैं। जो मन को वश में करके विमनस्क हो गये हैं, शान्तचित्तता उनकी प्रखर मेघावी परिचारिका बन गई है।३० जिन्होंने मानसिक संकल्पों का त्याग कर दिया है एवं मन को
२४
-महोपनिषद् अध्याय ४ ।
२५
-वही ।
- वही।
'अहं त्वं जगदित्यादौ प्रशान्ते दृश्यसंभ्रमे । स्यात्तादृशी केवलता द्दश्ये सत्तामुपागते ।। ५४ ।।' 'अविशेषेण सर्वतु यः पश्यति चिदन्वयात् । स एव साक्षाद्विज्ञानी स शिवः स हरिविधि ।। ७६ ।।' 'नाहं दुःखी न मे देहो बन्धः कोऽस्यात्मनि स्थितः । इति भावानुरूपेण व्यवहारेण मुच्यते ।। १२४ ।।' 'नाहं मांसं न चास्थीनि देहादन्यः परोऽस्म्यहम् । इति निश्चितवानन्तः क्षीणाविद्यो विमुच्यते ।। १२५ ।।' 'सप्तभूमिः स विज्ञेयः कथितास्ताक्ष भूमिकाः एतासां भूमिकानां तु गम्यं बह्माभिधं पदम् ।। ४३ ।।' 'निरस्तकल्पनाजालमचित्तत्वं परं पदम् । त एव भूमतां प्राप्ताः संशान्ताशेषकिल्बिषा ।। ६० ।।' 'महाधियः शान्तधियो ये याता विमनस्कताम् । जन्तोः कृतविचारस्य विगलद्वत्तिचेतसः ।। ६१ ।।'
-वही।
-वही अध्याय ५ ।
-वही ।
-महोपनिषद् अध्याय ५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org