Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 374
________________ समत्वयोग का तुलनात्मक अध्ययन ३२३ करने वाली है। __ हे मुनीश्वर! यदि यह शरीर बाहर एवं अन्दर रक्त तथा मांसादि से संव्याप्त है, तो इस नश्वर शरीर में रमणीयता कहाँ से आयेगी। यदि किसी ने शरतकालीन बादलों में गन्धर्व की नगरी को देखा हो, तो वह इस नश्वर देह की स्थिरता में विश्वास कर सकता है। बाल्यकाल में गुरु से, माता-पिता से, अन्य परिजनों से, आयु में बड़े लड़कों से एवं अन्य दूसरे लोगों से भी भय लगता है। अतः यह बाल्यावस्था भय का ही घर है। युवावस्था के आने पर अपने ही चित्त रूपी गुफा में निवास करने वाले भिन्न-भिन्न तरह के भ्रमों में फँसाने वाले इस काम रूपी पिशाच से बलपूर्वक विवश होकर व्यक्ति पराजय को प्राप्त हो जाता है।" वृद्धावस्था के प्राप्त होने पर उन्मत्त की भाँति काँपते हुए व्यक्ति को देखकर दास, पुत्र-पुत्रियाँ एवं बन्धु-बान्धव भी हँसी करते हैं।२ वृद्धावस्था में शरीर तो शिथिल हो जाता है, किन्त इच्छाएँ-आकांक्षाएँ अत्यधिक बढ़ जाती हैं। यह वृद्धावस्था हृदय में दाह प्रदान करने वाली है।२३ इस प्रकार ये तीनों अवस्थाएँ चित्तवृत्ति के समत्व को भंग करती हैं। अतः इनमें सुख कैसे माना जा सकता है? इस प्रकार जगत् में मेरा-तेरा आदि दृश्य प्रपंच (इन्द्रजाल) है। -वही । -वही । - वही । 'सर्व संसार दुःखानां तृष्णैका दीर्घ दुःखदा । अन्तः पुरस्थमपि या योजयत्यति संकटे ।। २५ ।।' 'रक्तमासमयस्यास्य सबाह्याभ्यन्तरे मुने । नाशैकथर्मिणो ब्रूहि कैव कायस्य रम्यता ।। ३१ ।।' 'तडित्सु शरदभ्रेषु गन्धर्वनगरेषु च । स्थैर्य येन विनिर्णीतं स विश्वासितु विग्रहे ।। ३२ ।।' 'शैशवै गुरुतो भीतिर्मामृत पितृतस्थ्तथा । जनतो ज्येष्ठबालाच्च शैशवं भयमन्दिरम् ।। ३३ ।।' 'स्वचित्तबिलसंस्थेन नानाविभ्रम कारिणा । बलात्कामपिशाचेन विवशः परिभूयते ।। ३४ ।।' 'दासाः पुत्राः स्त्रियश्चैव बान्धवाः सहृदस्तथा । हसन्त्युन्मत्तकमिव नरं वार्धक कम्पितम् ।। ३५ ।।' 'दैन्यदोषमयी दीर्घा वर्धते वार्धके स्पृहा । सर्वापदामेकसखी हृदि दाह प्रदायिनी ।। ३६ ।।' - महोपनिषद् अध्याय ३ । -वही । -वही । -वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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