Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 373
________________ ३२२ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना सभी कामनाओं का परित्याग कर दिया है, उसे ही जीवन्मुक्त कहा गया है।” जिसने धर्म-अधर्म, सुख-दुःख एवं जन्म-मृत्यु आदि का हृदय से पूर्ण परित्याग कर दिया है अर्थात् इन बाह्य घटनाओं से जिसका चित्त विचलित नहीं होता है, वही वास्तव में समत्वयोगी कहलाता है।१२ जो पुरुष संसार की समस्त रिद्धि-समृद्धि के बीच रहकर भी उससे निर्लिप्त रहता है, वस्तुतः वह निश्चित ही आत्मा में परमात्मा की अनुभूति करता है। ___महोपनिषद् में आगे तृष्णा को समत्वयोग की साधना में बाधक बताते हुए कहा गया है कि श्रेष्ठ मुने! मैं श्रेष्ठ सद्गुणों का आश्रय स्वीकार कर अपनी आत्मा को समत्व में स्थित करना चाहता हूँ; लेकिन मेरी तृष्णा उन श्रेष्ठ गुणों को ठीक वैसे ही काट देती है, जैसे कि दुष्ट मूषिका (चुहिया) वीणा के तारों को काट देती है। यह तृष्णा चंचल बँदरिया के समान है, जो न चाहते हुए भी अपना पैर टिकाना चाहती है। वह तृप्त होने पर भी भिन्न-भिन्न फलों की इच्छा करती है। एक जगह पर लम्बे समय तक नहीं रुकती।५ क्षणमात्र में ही वह आकाश एवं पाताल की सैर कर डालती है और क्षणमात्र में ही दिशारुपी कुंजों में भ्रमण करने लगती है। यह तष्णा हृदय कमल में विचरण करनेवाली भ्रमरी के समान है। यह तृष्णा नश्वर जगत् के समस्त दुःखों में दीर्घ काल तक दुःख देनेवाली अर्थात् चित्तवृत्ति के समत्व को भंग -महोपनिषद् अध्याय २ । -वही । " 'येन धर्मर्मधर्म च मनोमननमीहितम् । सर्वमन्तः परित्यक्तं स जीवन्मुक्त उच्चते ।। ५२ ।।' 'धर्माधर्मो सुख-दुःखं तथा मरणजन्मनी । धिया येन सुसंत्यक्तं स जीवन्मुक्त उच्चते ।। ५६ ।।' 'यः समस्तार्थ जालेषु व्यवहार्यपि निस्पृहः । परार्थेष्विव पूर्णात्मा स जीवन्मुक्त उच्चते ।। ६२ ।।' 'यांम यामहं मुनिश्रेष्ठ संश्रयामि गुणाश्रियम । तां तां कृन्तति मे तृष्णा तन्त्रीमिव कू मूषिका ।। २२ ।।' 'पदं करोत्यलध्येऽपि तृप्ता विफल मी हते । चिरं तिष्ठति नैकत्र तृष्णा चपलमर्कटी ।।२३ ।।' १६ 'क्षणंमायाति पातालं क्षणं याति नभः स्थलम् ।। क्षणं भ्रमति दिक्कुंजे तृष्णा हृत्पद्मषट्पदी ।। २४ ।।' -महोपनिषद् अध्याय २ । -वहीं अध्याय ३ । -वही । -वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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