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समत्वयोग का तुलनात्मक अध्ययन
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उसमें समत्व को ही योग कहा गया है समत्व या समता मानव जीवन की महान साधना एवं अनुपम उपलब्धि है । व्यक्ति इसी से सुख, शान्ति और निर्वाण को प्राप्त करता है ।
डॉ. सागरमल जैन ने समत्व की उपलब्धि के लिए त्रिविध साधना - पथ का प्रतिपादन किया है। चेतना के ज्ञान, भाव और संकल्प पक्ष को समत्व से युक्त अर्थात् सम्यक् बनाने के लिए जैनदर्शन ने सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यक् चारित्र को स्वीकार किया है । उसी प्रकार बौद्धदर्शन ने प्रज्ञा, शील और समाधि को स्वीकृत किया है । वैसे ही गीता ने ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग का प्रतिपादन किया है।
ज्ञान, कर्म और भक्ति सभी समत्व के लिए होते हैं । ये तीनों साधन हैं और समत्व साध्य है। गीता में बताया गया है कि जो सभी में समत्व दृष्टि रखता है, वही ज्ञानी है । ४७ बिना समत्व के कर्म अकर्म नहीं होता और समत्व भाव से ही यथार्थ भक्ति उपलब्ध होती है ।
समत्व के रहते हुए ही ज्ञान, कर्म और भक्ति का मूल्य या अर्थ है । वस्तुतः जब तक ज्ञान, कर्म और भक्ति समत्व से युक्त नहीं होते हैं, तब तक उनके द्वारा मुक्ति सम्भव नहीं होती है । ज्ञान, कर्म और भक्ति के समत्व के बिना ज्ञानयोग व कर्मयोग भक्तियोग नहीं बन सकते । समत्व से इनका रूप बदल जाता है । जैन परम्परा में भी ज्ञान, दर्शन (श्रद्धा) और चारित्र (कर्म) जब तक सम्यक् या समत्व से युक्त नहीं होते, तब तक वे सम्यक् होकर मोक्षमार्ग के अंग नहीं बनते हैं ।
४५ 'योगस्थः कुरु कर्माणि सग त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।। ४८ ।'
'जैन, बौद्ध एवम् गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन'
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'विद्या विनय संपत्रे ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः || १८ || '
' यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ।। २२।।'
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- गीता अध्याय २ । भाग २ पृ. १८ ।
- डॉ. सागरमल जैन ।
- गीता अध्याय ५ ।
-वही अध्याय ४ ।
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