Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 381
________________ ३३० जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना त्याग करके समत्वभाव से तू कमों का आचरण कर; क्योंकि समत्व ही योग है।८ हे अर्जुन ! यदि तू फल की प्राप्ति की इच्छा से रहित समत्व बुद्धि का आश्रय लेकर कर्म कर। ये सकाम कर्म अति तुच्छ हैं।"६० समत्व बुद्धि-रूप योग ही कर्मबन्धन से छूटने का कारण है। पुण्य-पाप से अनासक्त रहकर साम्यबुद्धि से कर्म करने की कुशलता ही योग है। जो राग-द्वेष एवं ईर्ष्या से रहित निर्द्वन्द्व एवं सिद्धि-असिद्धि में भी समभाव से युक्त है, जो स्वाभाविक उपलब्धियों से सन्तुष्ट है, वह जीवन के सामान्य व्यापारों को करते हुए भी बन्धन में नहीं बन्धता है।६२ जो शीत-उष्ण, मान-अपमान, सुख और दुःख जैसी विरोधी परिस्थितियों में सदैव प्रशान्त रहता है अर्थात् समभाव रखता है; तो मान लो कि उसने अपनी आत्मा को जीत लिया है और वह परमात्मभाव में सदैव स्थिर है।६३ जो लोहे एवं कांचन दोनों में समानभाव रखता है; जिसकी आत्मा तत्त्वज्ञान एवं आत्मज्ञान से तृप्त है; जो अनासक्त एवं संयमी है, वही योगी योग या समत्वयोग से युक्त है।६४ वही व्यक्ति मुक्ति को प्राप्त कर सकता है, जिसका हृदय मित्र और शत्रु के प्रति तटस्थ है। जो द्वेषी एवं बन्धु में तथा धर्मात्मा और पापात्मा के प्रति समभाव रखता है, वही अति श्रेष्ठ है।६५ जो -वही । -वही । -वही । 'योगस्थः कुरू कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय । सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।। ४८ ।।' ६० 'दूरेण वरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय । बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ।। ४६ ।।' 'बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृत दुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ।। ५० ।।' 'यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः । समः सिध्दावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ।। २२ ।।' 'जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः । शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ।। ७ ।।' 'ज्ञानविज्ञान तृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः । युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्ट्राश्मकांचनः ।। ८ ।।' 'सुहृन्मित्रायुदासीनमध्यस्थ द्वेष्यबन्धुषु । साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ।। ६ ।।' -वही अध्याय ४ । -वही अध्याय ६ । - गीता अध्याय ६ । -वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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