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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
३. दोनों घुटने खड़े करना, कोमलता का प्रतीक, इच्छामि
खमासमणो; ४. खड़े रहना, तत्परता तथा उद्यम का प्रतीक, बारह व्रतादि; ५. दोनों घुटने जमीन पर टिका देना, अर्पणता (शरणागति), पांच
प्राणातिपात वन्दना; ६. पद्मासन से बैठना, स्थिरता-समाधि का प्रतीक, संलेखना; ७. खड़े रहना - जिनमुद्रा में रहना, तत्परता का प्रतीक, कार्योत्सर्ग
मुद्रा। प्रतिक्रमण करने से आत्मा शुद्ध, पवित्र और निर्मल बनती है। व्रतों के परिपालन में भी निर्मलता आती है तथा राग-द्वेष, विषय
और कषाय मन्द होते हैं। आत्मबल व अतीन्द्रिय सुख में वृद्धि होती है; भव भ्रमण मिटता है तथा तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध होता है।
प्रतिक्रमण के भेद : साधकों के आधार पर प्रतिक्रमण के दो भेद हैं : १. श्रमण प्रतिक्रमण और २. श्रावक प्रतिक्रमण।
कालिक आधार पर प्रतिक्रमण के पांच भेद हैं : १. राई प्रतिक्रमण : रात्रि सम्बन्धी पापों की आलोचना के लिये
जो प्रतिक्रमण किया जाता है, वह (प्रातः) राई प्रतिक्रमण
कहलाता है। २. देवसी प्रतिक्रमण : दिन में हुए पापों की शुद्धि के लिये जो
प्रतिक्रमण किया जाता है, उसे (संध्या) देवसी प्रतिक्रमण कहते
३. पाक्षिक प्रतिक्रमण : एक पक्ष (पन्द्रह दिन) दरम्यान हुए पापों
की आलोचना हेतु प्रत्येक चतुर्दशी के दिन जो संध्या को
प्रतिक्रमण किया जाता है, उसे पाक्षिक प्रतिक्रमण कहते हैं। ४. चातुर्मासिक प्रतिक्रमण : चार मास में हुए पापों की शुद्धि के लिये आषाढ़, कार्तिक एवं फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी के दिन संध्या को जो प्रतिक्रमण किया जाात है, उसे चातुर्मासिक
प्रतिक्रमण कहते हैं। ५. सांवत्सरिक प्रतिक्रमण : वर्ष सम्बन्धी पापों की शद्धि के लिये
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन संध्या को जो प्रतिक्रमण किया
जाता है, उसे सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कहते हैं। इन पांचों प्रतिक्रमणों में कितने श्वासोच्छवास का काउसग्ग होते हैं :
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