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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
'The drying up a single tear has more of honest fame than shedding seas of gore.'
रक्त को समुद्र में बहाने की अपेक्षा पीड़ित का एक आँसू पोंछकर सुखा देना अधिक सद्कीर्ति प्रदान करता है।
__ वास्तव में करुणा एक दिव्य गुण है, वह चित्त का सर्वोत्कृष्ट निर्मल भाव है। करुणा भावना का हृदय में जब प्रादुर्भाव होता है, तब अन्तर में अभिमान, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद आदि दुर्भाव समाप्त हो जाते हैं। उसके हृदयरूपी दर्पण में सभी प्राणियों के अन्तस में विराजित परमात्मा के दर्शन होते हैं और वह उनकी सेवा को परमात्मा की उपासना मानता है। सच्ची करुणा सीमित नहीं होती है। वह तो विश्वव्यापी होती है। ऐसी करुणा सभी जीवों पर बरसती है। उसके लिए तो सभी आत्मवत् होते हैं। 'उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्' - समत्वयोगी साधक के हृदय में अपने-पराये का भेदभाव नहीं होता। वह उदार हृदय से सभी प्राणियों के दुःख को दूर करने का प्रयत्न करता है।
सहानुभूति को करुणा की बहन के रूप में स्वीकार किया गया है। इसमें संवेदना, दया, प्रेम, करुणा आदि भाव समाहित रहते हैं। इन भावों के सहारे ही समत्वयोग की साधना की जा सकती है। सहानुभूति और करुणा में ऐसे गुण हैं जो मनुष्य को देवत्व तक ही नहीं, परमात्मपद तक पहुँचाने में भी समर्थ हैं। सहानुभूति और करुणा की उष्मा पत्थर-हृदय को भी पिघलाकर मोम बना देती है। उसकी शान्त, शीतल और मनोरंजक लहरें दुःखी आत्माओं में प्रसन्नता और नवजीवन का संचार कर देती हैं।
प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान बालजाक ने कहा है कि सहानुभूति से युक्त व्यक्ति गरीबों और पीड़ितों के प्रति समर्पित होता है। दीन-दुःखी व्यक्तियों को देखकर वह उनकी पीड़ा को दूर करने का प्रयत्न करता है।
सहानुभूति या करुणा के विकास के साथ अन्य चार सद्गुणों का भी विकास होता है : १. दयाभाव; २. भद्रता; ३. उदारता; और ४. अर्न्तदृष्टि।
सहानुभूति या करुणा और सेवाभाव के माध्यम से दूसरों के दुःख और उनकी पीड़ा को समाप्त करना सामाजिक सौहार्द्र और
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