Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 362
________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना .२११ ध्यान इसी समाधि या निर्विकल्प चित्त की उपलब्धि का अभ्यास है । यही कारण है कि वे साधना पद्धतियाँ, जो व्यक्ति के चित्त को निराकुल, निर्विकार और निर्विकल्प या दूसरे शब्दों में समत्वयुक्त बनाना चाहती हैं, ध्यान को अपनी साधना में अवश्य स्थान देती हैं । २” योगशास्त्र में बताया गया है कि समत्वरुपी ध्यान से योगी पुरुष कषायरुपी अग्नि शान्त करके सम्यक्त्वरुपी दीपक को प्रकट करते हैं। आगे बताते हैं कि समत्व की साधना के आलम्बन बिना ध्यान की प्रक्रिया सम्भव नहीं है । २१२ कर्मों के क्षय से मोक्ष होता है । कर्मक्षय आत्मज्ञान से होता है और आत्मज्ञान ध्यान से होता है । इसीलिए ध्यान आत्मा के लिए हितकारी माना गया है । I .२१३ २१४ जैनाचार्यों ने भी ध्यान को चित्तवृत्ति निरोध कहा है। चित्त का निरोध हो जाना ध्यान है । जब ध्यान सिद्ध हो जाता है, तो चित्त की चंचलता स्वतः ही समाप्त हो जाती है । योगदर्शन में योग को, परिभाषित करते हुए भी कहा गया है कि चित्तवृत्तियों का निरोध ध्यान से ही सम्भव है । अतः ध्यान को साधना का आवश्यक अंग माना गया है 1 ध्यान में सर्वप्रथम दौड़ते हुए मन को संकल्प - विकल्प या वासनाओं से मोड़कर धर्म-चिन्तन में लगाया जाता है। ध्यान इस चैतसिक विघटन को समाप्त कर चेतना को केन्द्रित करता है । जब चित्तधारा वासनाओं, आकांक्षाओं एवं इच्छाओं के मार्ग से बहती है, तब चित्त में उद्विग्नता उत्पन्न करती है। ध्यान के द्वारा हम उन्हें मोड़ने का प्रयास करते हैं । चित्तवृत्तियों की निरर्थक भागदौड़ को समाप्त करने के लिए ध्यान-साधना आवश्यक है। ध्यान समत्व की महत्त्वपूर्ण औषधी है । २११ 'जैन विद्या के विविध आयाम' | २१२ (क) 'विषयेभ्यो विरक्तानां साम्यवासितचेतसाम् । उपशाम्येत् कषायाग्निर्बोधिदीपः समुन्मिषेत् ।। १११ ।।’ (ख) 'समत्वमवलम्व्याथ, ध्यानं योगी समाश्रयेत् । विना समत्वमारब्धे, ध्याने स्वात्मा विडम्बयते ।। ११२ ।। ' २१३ 'मोक्षः कर्मक्षयादेव, स चात्मज्ञानतो भवेत् । ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तद्ध्यानं हितमात्मनः ।। ११३ ।।' तत्त्वार्थसूत्र विवेचन ६/२७ । ३११ २१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only - डॉ सागरमल जैन । - योगशास्त्र ४ । -वही । -वही | - सुखलालजी ( पार्श्वनाथ शोध संस्थान वाराणसी १६७६) । www.jainelibrary.org

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