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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
_ जैन धर्म में ध्यान की परम्परा प्रागेतिहासिक काल से चली आ रही है। आचारांगसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र आदि आगमों में ध्यान साधना सम्बन्धी अनेक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं।२१५ तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार एकाग्र चिन्तन और शरीर, वाणी और मन का निरोध ध्यान है।२१६ ध्यानशतक में स्थिर अध्यवसाय को ध्यान कहा गया है।२१७ आवश्यकनियुक्ति में शरीर, वाणी और मन की एकाग्र प्रवृत्ति को ध्यान कहा गया है।
जैनसिद्धान्तदीपिका में कहा गया है कि 'एकाग्रे मनः सन्निवेशनं योग निरोधो वा ध्यानम्' - मन वचन और काय के निरोध को ध्यान कहा गया है। योगसूत्र में बताया है कि जिस ध्येय मात्र की एक ही प्रकार की वृत्ति का प्रवाह चलना, उसके विपरीत प्रवृत्ति न होना ध्यान है।२२० ।
ध्यानशतक में ध्यान से होने वाले पारम्परिक एवं व्यवहारिक लाभों की विस्तृत चर्चा है। उसमें कहा गया हैं कि धर्म-ध्यान से शुभानव, संवर, निर्जरा और देवलोक के सुख प्राप्त होते हैं। शुक्लध्यान के भी प्रथम दो चरणों का परिणाम शुभानव एवं अनुत्तर देवलोक के सुख हैं। उसके के अन्तिम दो चरणों का फल मोक्ष या निर्वाण है। जब तक ध्यान में विकल्प है या आकांक्षा है, चाहे वह प्रशस्त भी क्यों न हो; तब तक वह शुभानव का कारण तो होगा। फिर भी यह शुभानव मिथ्यात्व के अभाव के कारण संसार की अभिवृद्धि का कारण नहीं बनता है।"
जिस प्रकार मलिन वस्त्र जल से स्वच्छ किये जाते हैं, उसी प्रकार आत्मा के कर्मरूपी मल को ध्यान रूपी जल से निर्मल बनाया जाता है।२२२ जिसका चित्त ध्यान में संलग्न होता है, वह
तत्त्वार्थसूत्र ६ ।
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२१५ आचारांगसूत्र १/६/१/६ । २१६ 'कायावाङ्मनः कर्म योगः ।। १ ।।'
ध्यानशतक २। आवश्यकनियुक्ति १४५६ ।
'जैन सिद्धान्त दीपिका' । २२० देखें 'जैन विद्या के विविध आयाम' पृ. ४६९-७० ।
ध्यानशतक ६३-६६ । ध्यानशतक ६६-१०० ।
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