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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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सामंजस्य के लिये आवश्यक है।
४. माध्यस्थ भावना
चतुर्थ भावना माध्यस्थ भावना है। विरोधियों के प्रति उपेक्षा की वृत्ति माध्यस्थ भावना कही जाती है।०३ संसार में यह सम्भव नहीं है कि व्यक्ति का कोई आलोचक या विरोधी न हो। दूसरों के द्वारा किये जाने वाले विरोध एवं आलोचना से सामान्य व्यक्ति का चित्त उद्वेलित होता है। वैर-विरोध की भावना - जो विरोध करता है
और जिसका विरोध किया जाता है - दोनों के ही चित्त को उद्वेलित करती है। इस प्रकार वैरभाव चित्त के तनाव का कारण है। वैर-विरोध का अभाव तभी सम्भव है जब साधक विरोधी के प्रति उपेक्षा का भाव रखे और उसके निमित्त से अपने चित्त को उद्वेलित न होने दे। यदि हमारा चित्त शान्त रहता है, तो विरोधी प्रतिपक्षी भी एक सीमा के बाहर अपनी पराजय को स्वीकार कर लेता है। विरोध एवं आलोचना के प्रति प्रतिकार की वृत्ति संघर्षों को जन्म देती है और संघर्ष वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही शान्ति को भंग करते हैं। वैर-विरोध को आगे नहीं बढ़ने देने के लिये माध्यस्थ भावना आवश्यक है। माध्यस्थ भावना का अर्थ दूसरे के द्वारा की गई प्रतिक्रियाओं से अपने चित्त को उद्वेलित नहीं होने देना है। जब तक व्यक्ति का चित्त उद्वेलित रहता है, तब तक समत्वयोग की साधना सम्भव नहीं हो सकती। समत्वयोग की साधना के लिये यह आवश्यक है कि व्यक्ति अनुकूलता और प्रतिकलता की परिस्थिति में अविचलित रहे। माध्यस्थ का तात्पर्य यह है कि राग और द्वेष दोनों का अभाव। जिस प्रकार तराजू स्वभाव से सम रहती हैं, किन्तु उसके किसी भी एक पलड़े में भार डालने पर उसका सन्तुलन या समत्व भंग हो जाता है, उसी प्रकार से चित्त में राग-द्वेष की वृत्ति जागने पर चित्त का सन्तुलन भंग हो जाता है। माध्यस्थ भावना का मुख्य प्रयोजन उस सन्तुलन को बनाये रखना है। विश्व के प्रत्येक प्राणी के प्रति समभाव रखना ही माध्यस्थ भावना है। संसार की सभी परिस्थितियाँ या संसार का प्रत्येक व्यक्ति हमारे अनुकूल हो, यह सम्भव नहीं है। विरोधी या
२०३ अभिधानराजेन्द्रकोष खण्ड ४ पृ. २६७२ ।
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