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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
विद्वेषी व्यक्ति के प्रति भी दुर्भाव नहीं रखना ही माध्यस्थ भावना है। आचार्य अमितगति कहते हैं कि 'हे प्रभु! विरोधियों के प्रति भी मेरे हृदय में किसी प्रकार का द्वेष, उपेक्षा या घृणा की उत्पत्ति न हो - मैं माध्यस्थ बना रहूँ।'
आचार्य मलयगिरि ने मध्यस्थ का अर्थ करते हुए कहा है
कि :२०४
'मध्यस्थः समः य आत्मानमिव परं पश्यति' माध्यस्थ का अर्थ सम है, राग-द्वेष से रहित वह अपनी आत्मा के समान ही दूसरों को देखता है। उदासीनता का भाव या क्रिया माध्यस्थ है। राग-द्वेष से सर्वथा तटस्थ रहना सम है। समत्व प्राप्ति की क्रिया सामायिक है। दीर्घदृष्टि से विचार करें तो साम्यभाव और माध्यस्थ भाव में कोई अधिक अन्तर नहीं है। यदि माध्यस्थ भाव रूपी जल न हो, तो समता सूखी नदी के समान प्रतीत होती है।
आचार्य अमितगति ने भी इसका उल्लेख किया है :२०५ __'माध्यस्थ भावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विद्धातु देव'
हे जिनेन्द्र देव! विपरीत आचरण करने वाले पापी, दुष्ट और शत्रुवृत्ति वाले के प्रति भी मेरी आत्मा सदा माध्यस्थ भाव धारण करे।
माध्यस्थ भावना और समत्वयोग दोनों एक दूसरे से अभिन्न हैं। अन्तर मात्र इतना है कि माध्यस्थभाव कारण है और समता कार्य है।
माध्यस्थ भावना के कारण ही समत्व सार्थक होता है। आचार्यों ने माध्यस्थ, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, अस्पृहता, वीतरागता आदि को एकार्थवाचक माना है।
तत्त्वार्थराजवार्तिक और सर्वार्थसिद्धि में माध्यस्थ का लक्षण इस प्रकार किया गया है कि किसी के प्रति राग-द्वेष पूर्वक पक्षपात न करना माध्यस्थ भावना है।०६
जो व्यक्ति टेढ़े-मेढ़े चलते हैं - दूसरों को बदनाम करने की
२०४ मलयगिरी -उद्धृत 'समत्वयोग : एक समन्वय-दृष्टि' पृ. १०७ -डॉ. प्रीतम सिंघवी । २०५ अमितगति २०६ 'राग-द्वेषपूर्वकपक्षपाताभावो माध्यस्थम् ।। ६८३ ।।' -तत्त्वार्थराजवार्तिका, सर्वार्थसिद्धि ।
-वही ।
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