________________
जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
उपलब्धि सम्भव नहीं है । अतः जैन आचार्यों ने साधना की दृष्टि से अनासक्ति को अनिवार्य माना है ।
२५४
४. ८ मानसिक वैषम्य के निराकरण का उपाय : अनासक्ति
समत्वयोग की साधना में सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष चैतसिक समत्व का है। आज हम यह देखते हैं कि विश्व में चैतसिक असन्तुलन भी सबसे अधिक पाया जाता है। अमेरिका जैसे सर्वसुविधा सम्पन्न राष्ट्र की मनोवैज्ञानिक सूचनाओं से यह स्पष्ट होता है कि वह राष्ट्र मानसिक असन्तुलन से सर्वाधिक ग्रस्त है । वस्तुतः चैतसिक असन्तुलन का कारण कहीं न कहीं मनुष्य की आकांक्षाओं और इच्छाओं में असन्तुलन ही है। जैन परम्परा में कहा गया है कि इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त होती हैं । इच्छाओं की अनन्तता और उनकी पूर्ति के साधनों के सीमित होने के परिणामस्वरूप मानसिक असन्तुलन का जन्म होता है ।
५७
विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि देवदत्त अपने महल की खिड़कियों से बाह्य जगत् को देखता है । ७ उसी प्रकार प्राणी इन्द्रियों के माध्यम से पदार्थों से अपना सम्पर्क करता है । इन्द्रियों के बहिर्मुख होने से व्यक्ति की रूचि बाह्य विषयों में होती है। इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क होने पर कुछ विषय अनुकूल प्रतीत होते हैं । अनुकूल विषयों में पुनः पुनः प्रवृत्ति होती है । व्यक्ति में उनको बार-बार पाने की कामना जगती है । यह कामना ही चैतसिक असन्तुलन का प्रमुख कारण है । अनुकूल की प्राप्ति की आकांक्षा और प्रतिकूल से बचने के प्रयास के कारण राग-द्वेष का जन्म होता है । राग और द्वेष की उपस्थिति में हमारी चेतना का समत्व भंग हो जाता है ।
चित्त की इस असन्तुलन की अवस्था को मानसिक विषमता कहा जाता है । यद्यपि अनुकूल विषयों में प्रवृत्ति और प्रतिकूल
५७
(क) 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. ४६५ । - डॉ. सागरमल जैन ।
(ख) देखें 'गणधरवाद' - वायुभूति से चर्चा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org