________________
समचयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
२७३
छोटे से छोटे २५६ अवलिका (१/१० श्वासोच्छवास परिमाण) के भव निगोद में किये और बड़े से बड़े तैतीस सागरोपम के सातवें नरक के किये। निगोद में दो घड़ी जितने समय में ६५५३६ बार जन्म और मृत्यु हुई। इस प्रकार जन्मते-मरते अनन्तकाल तो केवल निगोद में ही व्यतीत हो गया।
विनयविजयजी ने शान्तसुधारस में बताया है कि अनन्त-अनन्त रूपों को धारण करने वाला जीव इस अनादि संसार-समुद्र में अनन्त पुद्गलपरावर्तन (अनन्तकाल) तक अनन्त बार जन्म-मरण करता रहता है।०१ इसी में आगे चर्चा की गई है कि हे भद्र पुरुष! तू इस संसार में जन्म-मरण आदि से भयभीत बना हुआ है। मोह रूपी शत्रु तेरा गला पकड़कर तुझे पग-पग पर विपदा की ओर ढकेल रहा है। अतः तू अनुभव कर कि यह संसार अत्यन्त
भगनक है।"१०२
__ ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचन्द्र ने बताया है कि संसार में प्रत्येक प्राणी अनेक रूपों को धारण करता है और उसका परित्याग करता है। जिस प्रकार नृत्य करने वाला भिन्न-भिन्न स्वांगों को धारण करता है, उसी प्रकार संसारी जीव चारों गतियों में परिभ्रमण करता रहता है।०३
विनयविजयजी का कथन है कि "हे विनय! तु संसार के समस्त भय को विनष्ट करके अर्थात् परिभ्रमण को समाप्त करके जिनवचन को मन में धारण करके मोक्ष का वरण कर।"१०४ इस परिवर्तनशील संसार में स्वजन-परजन की कोई स्थायी व्यवस्था नहीं है। क्योंकि एक ही जीव माता होकर बहिन, भार्या या पुत्री हो जाती है, तो कोई बहिन होकर माता, स्त्री या पुत्री हो जाती है। कोई स्त्री होकर बहिन, पुत्री या माता हो जाती है। कोई पुत्री होकर माता,
-शान्तसुधारस पृ. १७ ।
-वही पृ. १८ ।
'अनन्तान् पुद्गलावर्ताननन्तानन्त रूप भृत् ।
अनन्तशो भ्रमत्येव, जीवोऽनादिभवार्णवे ।।' १०२ 'कलय संसारमतिदारूणं, जन्ममरणादिभयभीत रे ।
मोहरिपुणेह सगलग्रहं, प्रतिपदं विवदमपनीत रे ।।' १०३
'रूपाण्येकानि गृह्णाति त्यजत्यन्यानि सन्ततम् । यथा रडगेऽत्र शैलूषस्तथायं यन्त्रवाहकः ।।' 'सकल संसार भय भेदकं, जिनवचो मनसि निबधान रे । विनय! परिणमय निःश्रेयसं, विहितशमरस सुधापान रे ।।
ज्ञानार्णव पृ. ३० ।
शान्तसुधारस पृ. १६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org