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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
बहिन, स्त्री हो जाती है तथा कोई पिता होकर भाई, पुत्र या पौत्री - नाती बन जाते हैं । इस प्रकार कर्मों के अनुसार सम्बन्ध बनते और टूटते रहते हैं । ५ अतः हे मुमुक्षु प्राणी! संसार के स्वरूप का पुनः पुनः चिन्तन कर कि अहो! यह संसार अस्थिर और स्वभाव से कष्ट रूप है । यह इष्ट और अनिष्ट, सुख और दुःख रूप युगल धर्म का अभ्यस्त एक प्रकार का उपवन है । जिसको संसार में इष्ट विषय समझा जाता है, वह भी वास्तव में दुःख ही है नाटक के दृश्यों की तरह यह संसार अभिनय पूर्ण त्याज्य है । इस प्रकार का चिन्तन करना संसार भावना है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि “जन्म दुःखमय है, बुढ़ापा दुःखमय है, रोग और मरण भी दुःखमय है । अरे यह संसार ही दुःखमय है, जिसमें प्राणी क्लेश को प्राप्त हो रहे हैं । यह लोक मृत्यु से पीड़ित है, जरा से घिरा हुआ है और रात-दिन रूपी शस्त्र धारा से त्रुटित कहा गया है । १०८
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प्रशमरतिसूत्र में बताया गया है कि सम्बन्धों के बन्धन ! सम्बन्धों की माया ! यही संसार है, भव भ्रमणा का मूलभूत कारण है सम्बन्धों के जाल - जंजाल में मैं न तो परमात्म- ध्यान में निमग्न हो पाया... न ही तत्त्व रमणता में जुड़ा... और न ही परम ब्रह्म में लीन - तल्लीन हो सका। इन सम्बन्धों की माया ने मुझे चंचल, अस्थिर, कालुष्ययुक्त पागल और मूर्ख बना डाला । मैं भी मूर्ख बनता चला गया । किन्तु हे मूर्ख! शुद्ध-बुद्ध मुक्त आत्मा के साथ सम्बन्ध अवर्णनीय सुख को देने वाला है ।' १०६ परद्रव्यों से किया गया स्नेह वस्तुतः संसार है । हे आत्मन्! तू चेतन है और शरीरादि परद्रव्य सर्वांग जड़ हैं ऐसा चिन्तन कर ।
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इस प्रकार अभी तक हमने तीन भावनाओं की चर्चा की जिसमें अनित्य में संयोगों की क्षणभंगुरता, अशरण में संयोगों की
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तत्वार्थाधिगम पृ. ३६५ ।
'यत्सुखे लौकिकी रूढ़िस्तदुःखं परमार्थतः । '
उत्तराध्ययनसूत्र १६/१६ ।
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१०८ वही १४ / २३ । प्रशमरतिसूत्र पृ. ३३२-३३ । बारह भावना : एक अनुशीलन पृ. ५४ ।
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- पंचध्यायी ।
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