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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
के पुद्गलों को रोकना संवर है । क्योंकि ये क्रियाएँ ही आस्रव का कारण है।
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जैनदर्शन में संवर के दो भाग किये हैं। द्रव्य संवर और भाव संवर। द्रव्यसंग्रह में कहा गया है कि कर्माश्रव को जाग्रतिपूर्वक रोकने की स्थिति भाव संवर है और द्रव्याश्रव को रोकने वाली उस चैतसिक स्थिति का परिणाम द्रव्य संवर है । १६६
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समवायांगसूत्र में संवर के पांच अंग बताये गये हैं । १६७ स्थानांगसूत्र में संवर के आठ भेद निरूपित किये गये हैं I
प्रकारान्तर से जैनागमों में संवर के सत्तावन भेद भी मिलते हैं । डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि उपयुक्त आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि संवर का तात्पर्य मर्यादित जीवन प्रणाली है; जिसमें विवेकपूर्ण आचरण तथा मन, वचन और काया की अयोग्य प्रवृत्तियों का संयमन और सद्गुणों का ग्रहण होता है । संवर के साथ समत्व की साधना भी समाहित है। जैनदर्शन में संवर द्वारा साधक से यही अपेक्षा की गई है कि उसका प्रत्येक आचरण संयत एवं विवेकपूर्ण हो और चेतना सदैव जाग्रत रहे, जिससे इन्द्रियों के विषय उसमें राग-द्वेष की प्रवृत्तियाँ पैदा न कर सकें। जब इन्द्रियाँ और मन अपने विषयों के सम्पर्क में आते हैं; तो आत्मा में विकार या वासना उत्पन्न होने की सम्भावना खड़ी हो जाती है। अतः साधना मार्ग के पथिक को सदैव जाग्रत रहते हुए विषय सेवन रूप छिद्रों से आने वाले कर्माश्रव से अपनी रक्षा करनी है। सूत्रकृतांग में कहा गया है कि कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को समेटकर खतरे से बाहर हो जाता है, वैसे ही साधक भी अध्यात्मयोग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पाप वृत्तियों से सुरक्षित रखे।' दशवैकालिकसूत्र में सच्चे साधक की व्याख्या करते
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१६६ द्रव्यसंग्रह ३४ ।
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१६६ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. ३८६ |
- डॉ. सागरमल जैन ।
सूत्रकृतांग १/८/१६ |
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समवायांगसूत्र ५ / २६ ।
स्थानांगसूत्र ८ / ३ / ५६८ ।
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