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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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जैसे बादलों की गर्जना और वर्षा के आगमन को देखकर मोर पिउ-पिउ करते हुए अपने पंखों को फैलाकर नाचने लगते हैं, उसी प्रकार गुणीजनों धर्मात्माओं, समाज के निष्ठावान सेवकों, समत्व के साधकों, वृत्तिबद्ध श्रावकों एवं सज्जनों के मिलने पर हृदय का गद्-गद् होजाना, मन प्रसन्नता से झूम उठना और चित्त का आल्हाद, उत्साह से भर जाना ही प्रमोद भावना है। समत्वयोग का साधक सदैव ही ऐसी भावना रखता है।
आचार्य अमितगति ने प्रमोद भावना का उल्लेख इस प्रकार किया है :
'गुणिषु प्रमोदम्१६७ विश्व के प्रत्येक गुणी व्यक्ति के प्रति समर्पण ही प्रमोद भावना है। यह समत्वयोगी का लक्षण हैं। कई व्यक्ति क्षमा, दया, प्रेम, सेवा, करुणा, बन्धुता, समता आदि गुण से युक्त होते हैं। उनके गुणों की प्रशंसा करना और उनके प्रति आदर भाव रखना ही प्रमोद भावना है। जो व्यक्ति व्रतों या महाव्रतों को ग्रहण कर समत्वयोग की आराधना से जुड़ते हैं, आत्मकल्याण के साथ-साथ समाज कल्याण में भी संलग्न रहते हैं, निष्काम भाव से समाज एवं राष्ट्र की सेवा करते हैं, जो राग-द्वेष एवं मोह से रहित निःस्पृह एवं निर्द्वन्द्व होते हैं, ऐसे महापुरुषों के प्रति सम्मान का भाव रखते हुए प्रसन्नतापूर्वक समर्पित हो जाना ही प्रमोद भावना है।
भगवतीआराधना में प्रमोद भावना का लक्ष्ण इस प्रकार से मिलता है :
'मुदिता नाम यतिगुण चिन्ता, यतयो ही विनीता विरागा विभया विमाना विशेषा विलोभा इत्यादिका।६८ संयमी साधुओं के गुणों का विचार करके उनके प्रति अहोभाव उत्पन्न होना प्रमोद (मुदिता) भावना है। संयमी साधुओं में विनम्रता, वैराग्यता, निर्भयता, निरभिमानता, रोष-दोष रहितता और निर्लोभता आदि गुण होते हैं। अतः उनके गुणों को जीवन में उतारने का
१६७ (क) अमितगति ।
-उद्धृत सामायिकसूत्र १५२ ।
... (ख) योगशास्त्र ४/११६ ।
१६८ भगवतीआराधना १६६१ ।
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