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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
भी भंग होता रहता है । अतः चैतसिक समत्व के लिए चित्त का ईर्ष्या से मुक्त होना आवश्यक है। ईर्ष्या से मुक्त होने के लिए प्रमोद भावना की साधना आवश्यक है । यह प्रमोद की भावना जहाँ हमारे वैयक्तिक जीवन में समत्व की स्थापना करती है, वहीं वह सामाजिक जीवन के संघर्षों और तनावों को भी कम करती है ।
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गुणीजनों के प्रति आदर का भाव समाज में सद्गुणों के प्रति आस्था को भी जाग्रत करता है । समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिए प्रमोद की भावना आवश्यक है । जहाँ समाज में गुणीजनों और सदाचारियों का सम्मान होता है, वहाँ समाज में सामंजस्य और सद्भाव बना रहता है। गुणीजनों के गुणों के प्रति आदर का भाव हमारे जीवन में सद्गुणों के प्रति आस्था को उत्पन्न करता है और जिस समाज में गुणीजनों के प्रति प्रमोद की भावना होती है, वह समाज निरन्तर प्रगति करता है। इस प्रकार प्रमोद की भावना भी समत्व की साधना के लिए आवश्यक है । मैत्री भावना से प्रमोद भावना कुछ विशेष गुण दर्शाती है। प्रमोद भावना से व्यक्ति के चित्त में विशिष्ट गुण सम्पन्न व्यक्तियों के प्रति आदर भाव, उत्साह, उमंग एवं आल्हाद आता है और उनके दर्शन से वह प्रफुल्लित हो उठता है । व्यक्ति के चित्त में जब समत्व या समता आती है, तब ही प्रमोद भावना प्रस्फुटित होती है ।
सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थ सूत्र की टीका में प्रमोद भावना का स्वरूप निम्न प्रकार से वर्णित है :
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'वदनप्रसादिभिरभिव्य ज्यमानान्तर्भावितराग प्रमोद ।।'
मुख की प्रसन्नता आदि के द्वारा अन्तर में भावित भक्ति और अनुराग का अभिव्यक्त होना प्रमोद है । गुणीजनों (फिर वे चाहे किसी जाति, कुल, देश या सम्प्रदाय आदि के हों) के प्रति आदर भाव रखना, उन्हें देखकर प्रमुदित होना, उनके गुणों की प्रशंसा एवं अनुमोदन करना और उनके गुणों को आत्मसात करना प्रमोद भावना है। किसी व्यक्ति में गुणों का उत्कर्ष एवं विकास को देखकर उनके प्रति ईर्ष्या एवं द्वेष की भावना नहीं रखना ही प्रमोद है ।
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सर्वार्थसिद्धि ७/१८३ ।
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