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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
१. मैत्री भावना
मैत्री अर्थात् समभाव - आत्मा की विशुद्धि। जैसे आत्मा की विशुद्धि बढ़ती जायेगी, वैसे मैत्री भावना में वृद्धि होती जायेगी और समत्वयोग दृढ़ होता जायेगा। मैत्री भावना आत्मा का एक महत्त्वपूर्ण गुण है। मैत्रीभाव का साधक समस्त विश्व के प्राणियों को आत्मवत् देखता है। मैत्री भावना और समत्वयोग का परस्पर गाढ़ सम्बन्ध रहा हुआ है। समत्व भाव से ही मैत्री भावना का निर्माण होता हैं। वैदिक साहित्य में कहा गया है :
___ मित्रस्य चाक्षुषा सर्वाणि भूतानि पश्यामहे ।६२ तू विश्व के सभी जीवों को मित्रता की आंखों से देख। जैनदर्शन में कहा गया है कि किसी के साथ मेरा वैर नहीं है अथवा सब के प्रति मेरा मित्रता का भाव है। यही समत्व की साधना का कारण है। धम्मपद में कहा गया है- 'मैत्तं च मे सव्वलोकस्सि' विश्व के सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है। समतायोगी इसी प्रकार का चिन्तन करता है।
गीता में भी मैत्री आदि भावनाओं के अनुरूप आत्मोपगम्य की बात कही है। दूसरों में अपने को एवं अपने में दूसरों को समान रूप से देखना समत्व की साधना का आधार है। दूसरों के सुख-दुःख की अनुभूति अपनी आत्मा के समान करना समत्वयोगी का लक्षण है। ___ गीता में लिखा है कि मनुष्य को तुच्छ स्वार्थवृत्ति छोड़कर परमार्थ-दृष्टि से चिन्तन और व्यवहार करना चाहिये। यही मैत्रीमूलक समता है। जब मनुष्य की दृष्टि आत्मोपम्य की हो जाती है, तब वह स्वार्थ प्रवृत्ति से ऊपर उठ जाता है और उसकी दृष्टि समतामय बन जाती है।'८३
आचार्यों ने मैत्री का निम्न लक्षण किया है - 'सुखचिन्ता मता
१६२ यजुर्वेद ३६/१८ ।। १६३ 'आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःख स योगी परमो मतः ।। ३२ ।।'
-गीता ६ ।
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