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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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मैत्री' अर्थात् दूसरे प्राणियों के वास्तविक सुख की भावना या चिन्तन करना मैत्री है। तत्त्वार्थराजवार्तिक एवं सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है कि :
‘परेषां दुःखानुत्पत्यभिलाषा मैत्री'१६४ दूसरों को किंचित् मात्र भी दुःख न हो, ऐसी अभिलाषा रखना मैत्री है। जिसके चित्त में प्रसन्नता, सद्भावना पूर्ण आत्मीयता एवं जीवन की मधुरता है, वही समत्वयोगी है। __ मैत्री जब हृदय में व्यापक रूप धारण करती है, तब संकीर्णताएँ, संकुचितता, स्वार्थ भावना आदि समाप्त हो जाती है
और हृदय में शुद्ध प्रेम दया, आत्मीयता, बन्धुता, सहृदयता, करुणा, क्षमा, सेवा आदि के दिव्य गुण प्रकट हो जाते हैं। जीवन में सुख सम्पदाओं की कोई कमी नहीं रहती। मैत्री के माध्यम से मनुष्य विश्व की समस्त आत्माओं के प्रति आत्मीय भाव रखता है। भगवान महावीर ने भी कहा है :
___मित्ति में सव्वभूऐसु, वैरं ममं न केणई।१६५ विश्व के प्राणीमात्र से वैर-विरोध न रखकर सभी के प्रति मैत्री भावना रखना ही समभाव या समत्व की साधना है।
२. प्रमोद भावना
चार भावनाओं में दूसरा स्थान प्रमोद भावना का है। प्रमोद भावना का अर्थ गुणीजनों के प्रति आदर का भाव है तथा उनकी उपस्थिति और उनके सान्निध्य को पाकर के मन में प्रसन्नता की अनुभूति होना है। प्रमोद भावना ईर्ष्या की प्रतिरोधी है। व्यक्ति के चित्त में जब ईर्ष्या का भाव जाग्रत होता है तब उसका मानसिक सन्तुलन भंग हो जाता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति का चित्त दूसरों की प्रगति को देखकर दुःखी होता रहता है। इससे उसकी चेतना का समत्व
१६४ सर्वार्थसिद्धि ६८३ । १६५ (क) आवश्यकसूत्र अध्ययन ८ (उद्धृत् 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का
तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ४३३ - डॉ. सागरमल जैन) । (ख) 'माकार्षीत् कोऽपि पापानि, मा च भूत् कोडिप दुःखितः ।
मुच्यतां जगदप्येषा मतिमैत्री निगद्यते ।। ११८ ।।' -योगशास्त्र ४ ।
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