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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
चाहिये, तो ही वह कर्म निर्जरा का हेतु होता है। उसी से आत्मा मुक्ति को प्राप्त होती है।८०
१०. लोक भावना __लोक भावना का तात्पर्य लोक के स्वरूप का चिन्तन करना है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि लोक के स्वरूप को जानने का प्रयत्न समत्वयोग की साधना के लिये कितना सार्थक है? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि लोक के स्वरूप का ज्ञान जीव और अजीव दोनों के स्वरूप का ज्ञान है। जीव के स्वाभाविक व वैभाविक स्वरूप को जाने बिना साधना के क्षेत्र में कोई गति नहीं हो सकती है। संसार भावना या लोकभावना हमें यह बताती है कि यह आत्मा अनादिकाल से इस संसार में विविध योनियों में जन्म मरण करती रहती है। उसके इस परिभ्रमण का कारण उसके ही शुभाशुभ भाव हैं। व्यक्ति अपने अशुभभावों के परिणामस्वरूप जहाँ नरक व निगोद की यातना सहता है, वहीं शुभ भावों के द्वारा देवयोनि को प्राप्त करके वहाँ के सुखों का अनुभव करता है। फिर भी ये दोनों अवस्थाएँ उसे भवभ्रमण से मुक्त कराने में समर्थ नहीं हैं। लोक के स्वरूप को जानकर व्यक्ति प्रथम तो नरक, निगोद आदि दुःखमय योनियों से बचने का प्रयत्न कर सकता है, तो दूसरी और शुभ भावों को करके वह मनुष्य, देव आदि श्रेष्ठ गतियों के लिये प्रयत्न कर सकता है। यदि व्यक्ति अनादि अनिधन लोक के स्वरूप को नहीं जानेगा, तो वह जन्म-मरण की प्रक्रिया को भी नहीं समझ सकेगा। जन्म-मरण की इस प्रक्रिया को समझे बिना वह इससे मुक्त होने का प्रयत्न भी नहीं कर पायेगा। इसलिये साधना की दृष्टि से लोक के स्वरूप को समझना आवश्यक है। आचारांगसूत्र (१/१/१/१) में कहा गया है कि जो आत्मवादी होगा, वह लोकवादी होगा और जो लोकवादी होगा, वही कर्मवादी और क्रियावादी होगा।
लोक के स्वरूप को जानकर ही व्यक्ति संसार परिभ्रमण से मुक्त बनने का प्रयत्न कर सकता है। जैनदर्शन के अनुसार इस अनादि अनिधन संसार में हमारी आत्मा अनन्तकाल से परिभ्रमण
१८० आचारांगसूत्र ४/३/१४१ ।
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