Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 345
________________ २६४ जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना लिये धर्म ही उत्तम दीप है या शरण स्थल है। धर्म के अतिरिक्त हमारा अन्य कोई रक्षक नहीं है।८३ योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है कि धर्म ही उन सबका बन्धु है, जिसका संसार में अन्य कोई बन्धु नहीं है - अन्य कोई साथी नहीं है। जिनका कोई स्वामी नहीं है, उनका स्वामी धर्म ही है।८० धर्म ही हमारा एक मात्र रक्षक एवं त्राता है। इस प्रकार धर्म के स्वरूप और उसकी उपयोगिता एवं महत्त्व का चिन्तन करते हुए हम साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ सकते हैं।'५ धर्म भावना का मुख्य प्रयोजन धर्म की उपयोगिता को जानकर तथा उसके स्वरूप को समझकर उसे जीवन में उतारने का प्रयत्न करना है। धर्म जब जीवन में अवतरित होता है, तो वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में समत्व या समभाव का प्रकटीकरण होता है। इस प्रकार धर्म भावना समत्व की साधना का एक महत्त्वपूर्ण सम्बल है। १२. बोधिदुर्लभ भावना किसी भी साधना की सार्थकता तभी सम्भव है, जब हमारे अन्दर सम्यक् समझ उत्पन्न हो। बोधिदुर्लभ भावना का तात्पर्य यह है कि संसार में सम्यक् समझ या बोध की प्राप्ति अत्यन्त कठिनता से होती है। जीव को ऐसे अवसर कम ही उपलब्ध होते हैं, जब वह सन्मार्ग को प्राप्त होता है। हमारे जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते भी हैं, जब हम अवसर को प्राप्त करके भी उसका उपयोग नहीं कर पाते। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जीवन में चार वस्तुओं की उपलब्धि अत्यन्त कठिनता से होती है : १. मनुष्य भव की प्राप्ति; २. धर्मश्रवण; ३. शुद्ध श्रद्धा; और ४. संयम मार्ग में पुरुषार्थ । ८६ १८३ 'मरिहिसि रायं ! जया तया वा, मणोरमे कामगुणे पहाय । एक्को हु धम्मो नरदेव ! ताणं, न विज्जई अन्नमिहेह किंचि ।। ४० ।।' -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन १४ । 'अबन्धूनामसौ बन्धुरसखीनामसौ सखा । अनाथानामसौ नाथो, धर्मो विश्वैकवत्सलः ।। १०० ।।' -योगशास्त्र ४ । १८५ वही । १८६ 'चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जन्तुणो । माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ।। १ ।।' -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन ३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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