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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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सच्चा प्रेम वही है, जो निरुपाधिक हो और निस्वार्थ हो। ऐसा प्रेम केवल आत्मीय स्वरूप के साथ हो सकता है। इस प्रकार गहराई से चिन्तन करना ही अन्यत्व भावना है। इसी की सम्यक् जानकारी के लिये कहा गया है कि -
'जल-पय ज्यों जिय-तन भेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला।' विभिन्न संयोगों के मेले में खोए हुए निज शुद्धात्मतत्त्व को खोजना है, पहिचानना है, पाना है और उसे सबसे भिन्न निराला जानना है। उसका सदा चिन्तन करना है - उसी में लगना एवं रमना है। उसी में लीन तथा विलीन होना है। सम्पूर्णतः उसी में समाविष्ट होना अन्यत्व भावना या समत्व का मूल प्रयोजन है।२८
आचार्य योगिन्दुदेव ने भी कहा है कि पुद्गल, जीव तथा अन्य सब व्यवहार भिन्न हैं। अतः हे आत्मन्! तू पुद्गल को छोड़ और अपनी आत्मा में स्थिर बन। इससे तू शीघ्र ही इस संसार को पार हो सकेगा।३६ वे आगे कहते हैं कि जिसने समस्त शास्त्रों के सारभूत निज शुद्धात्मतत्त्व को जान लिया और उसी में लीन हो गया, उसे समस्त शास्त्र का ज्ञाता माना गया है। 'पर' में भिन्नता का ज्ञान ही भेद विज्ञान है और 'पर' से भिन्न निज चेतन आत्मा को जानना, मानना और अनुभव करना ही आत्मानुभूति है, आत्मसाधना है और आत्माराधना है। सम्पूर्ण जिनागम और जिन-अध्यात्म का सार इसी में समाहित है। अन्यत्व भावना के चिन्तन की चरम परिणति भी यही है।
यह अन्यत्व भावना हमें यह सिखाती है कि मैं शरीर में हूँ, किन्तु शरीर नहीं हूँ। शरीर अलग है और मैं अलग हूँ; क्योंकि मैं शरीर का ज्ञाता दृष्टा हूँ। अतः उससे भिन्न हूँ। यह अन्यत्व भावना भी राग का प्रहाण करती है और इस प्रकार ममत्व को तोड़कर हमें समत्व में स्थिर करती है।
१३७ आनन्दघन चौवीसी १/१ ।। १३८ 'पुग्गलु अण्णु जि अण्णु जिउ, अण्णु वि सहु ववहारू ।
चयहि वि पुग्गलु गहहि जिउ, लहु पावहि भवपारू।।'-बारह भावनाःएक अनुशीलन पृ. ७६ । १३६ 'जो अप्पा सुद्ध वि मुणइ असुइ-सरीर-विभिण्णु । जो जाणइं सत्थई सयल सासय-सुक्खहं लीणु ।। ६५ ।।'
-योगसार ।
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