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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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है।४५ इसी सन्दर्भ में पण्डित भूधरदासजी ने भी बताया है कि यह देह अत्यन्त अपवित्र है - अस्थिर है। इसमें रंचमात्र भी सार नहीं है। इसके समान अपवित्र अन्य कोई पदार्थ नहीं है। सागरों के जल से धोये जाने पर भी यह शुद्ध होने वाला नहीं है।४६ कहा गया है कि 'अस देह करे कि यारी' अर्थात् ऐसी अशुचि देह से क्या प्रेम करना? तथा 'राचन जोग सवरूप न याको, विरचन जोग सही है' अर्थात यह रमने योग्य नहीं, अपितु छोड़ने योग्य ही है।
पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने इस प्रकार बताया है कि अपनी आत्मा अत्यन्त निर्मल है और यह देह अपवित्रता का घर है। हे भव्यजीवों! इस प्रकार जानकर इस देह से स्नेह छोड़ो और निजभाव का ध्यान करो।४७
कार्तिकेयानुप्रेक्षा में स्पष्ट लिखा है कि हे भव्य जीव! जो परदेह से विरक्त होकर अपनी देह में भी अनुराग नहीं करता है तथा अपने आत्मस्वरूप में अनुरक्त रहता है, वही अशुचिभावना का साधक है।४८ __ भावनाशतक में भर्तृहरि ने कहा है कि 'रूपे जराय भयं का ये कृतान्ताभयं' अर्थात् रूप को बुढ़ापे का भय है और शरीर को मृत्यु का। वास्तव में देखा जाय तो रूप सौन्दर्य को नष्ट करने वाली अकेली मृत्यु ही नहीं है, अपितु वृद्धावस्था, रोग आदि भी हैं। सन्ध्या के रंग की भाँति यह शरीर भी अस्थिर है, रोगों से भरपूर है, व्याधियों का घर है और पलभर में बदलनेवाला है। एक क्षण में यह सुन्दर दिखनेवाली देह दूसरे ही क्षण में असुन्दर बन जाती है। ऐसे अस्थिर विकारी और क्षणिक सौन्दर्य पर मुग्ध होना
१४५ (क) 'अरई गंडं विसूइया, आयंका विविहा फुसंति ते । विहडइ विद्धंसइ ते सरीरयं, समयं गोयम! मा पमायए ।। २७ ।।'
-उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन १० । (ख) उत्तराध्ययनसूत्र १६/१४ । १४६ 'देह अपावन अथिर घिनावन, यामै सार न कोई। सागर के जल सौं शुचि कीजै, तो भी शुद्ध न होई ।।'
___-'बारह भावनाःएक अनुशीलन' पृ.८७ । १४७ पण्डित जयचन्दजी कृत बारह भावना । १४८ 'जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुरायं ।। अप्पसरूव सुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स ।। ८७ ।'
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ।
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