Book Title: Jain Darshan me Samatvayog
Author(s): Priyvandanashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP

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Page 336
________________ समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना कार्तिकेयानुप्रेक्षा में बताया गया है कि सूक्ष्म सम्पराय नामक दसवें गुणस्थान तक जीव कषाय सहित होते हैं । उनके आस्रव को साम्परायिक आस्रव कहते हैं और ग्यारहवें, बारहवें एवं तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीव मोह के उदय से रहित होते हैं । उनके योग के निमित्त से होने वाले आस्रव को ईर्यापथिक आस्रव कहते हैं। जो पुद्गल वर्गणा कर्मरूप परिणमती है, उसको द्रव्याश्रव कहते हैं और जिसका आत्मप्रदेशों में स्पन्दन रूप परिणमन होता है, उसको भावाश्रव कहते हैं । १५३ समवायांगसूत्र में निम्न पांच आसव द्वारों का वर्णन किया गया है : १. मिथ्यात्व; २.अविरति; ३. प्रमाद; ४. कषाय; और ५. योग । १५ इन पांचों में भी प्रत्येक द्वार द्रव्य और भाव के रूप में दो-दो प्रकार का होता है । इनमें भावमिथ्यात्वादि आत्मा के विकारी परिणाम हैं और द्रव्यमिथ्यात्वादि कार्मणवर्गणा के कर्मरूप परिणमन हैं। नौकर्मरूप शरीरादि से क्रिया रूप परिणमन होते हैं । शरीरादि संयोगों के समान ये आस्रवभाव भी अनित्य हैं; अशरण हैं; अशुचि हैं; आत्मस्वभाव से भिन्न हैं; चतुर्गति में संसरण के हेतु हैं; दुःख रूप और जड़ हैं । इनसे भिन्न ज्ञानादि अनन्तगुणों का पुंज, अजर, अमर, अविनाशी, अखण्ड, पिण्ड आत्मा नित्य है और परम शरणभूत है । आत्मा संसार परिभ्रमण से रहित, परम पवित्र और अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति का हेतु भी है । इस प्रकार आस्रव के स्वरूप एवं कारणों का चिन्तन ही आस्रव भावना है I १५५ योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र ने योग को आस्रव कहा है; ' क्योंकि योग के द्वारा शुभाशुभ कर्मों का आस्रव होता है 1 तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि मन, वचन और काया के व्यापार योग हैं । इनके निमित्त से होने वाले कर्मों का आगमन ही आसव है। .१५६ १५३ 'मणवयणकायजोया, जीवपयेसाणफंदणविसेसा । २८५ मोहोदएण जुत्ता विजुदा वि य आसवा होंति ।। ८८ ।' समवायांगसूत्र समवाय ५/४ । १५४ १५५ योगशास्त्र ४ / ६८, ७४ एवं ७८ । 'कायवाङ्मनः कर्मयोगः स आस्रवः ' १५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only - कार्तिकेयानुप्रेक्षा । -तत्त्वार्थसूत्र ६/१-२ । www.jainelibrary.org

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