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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
तब भिन्न एक क्षेत्रावगाही परिजन या पदार्थ तेरे कैसे हो सकते हैं? १३३
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पण्डित दीपचन्दजी कृत बारह भावना में यह बात और भी अधिक स्पष्ट रूप से कही गई है कि जिस शरीर में जीव रहता है, जब वह शरीर ही अपना नहीं होता, तब जो परद्रव्य प्रत्यक्ष 'पर' हैं, वे अपने कैसे हो सकते हैं । १३४
१३५
,१३६
विनयविजयजी ने बताया है कि ज्ञान - दर्शन - चारित्र लक्षणवाली चेतना के बिना सब पराया है । ऐसा निश्चय करके तू अपने कल्याण मार्ग की प्राप्ति के लिये प्रयत्न कर तू अपने घर को देख । अन्य कोई तुझे दुर्गति से उबार नहीं सकता है। इसी के सन्दर्भ में बताया गया है कि तू जन्म-जन्मान्तर में नाना प्रकार के पदार्थों का संग्रह करता है, कुटुम्ब का भरण-पोषण करता है । लेकिन परलोक में जाने के समय एक पतला धागा भी तेरे साथ नहीं चलेगा, इसकी पूर्णतः सावधानी वर्तना एवं समत्व से युक्त आत्मा को जाग्रत बनाये रखना । अन्यत्व भावना का चिन्तन करके यही विचार करना कि मै कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ ? अब मुझे क्या करना है? मुझे कहाँ जाना है? मेरा चिन्तन कहीं विपरीत दिशा में तो नहीं हो रहा है। सभी को मैं अपना मान रहा हूँ, ये अपने नहीं किन्तु अपने होने के सपने हैं । वस्तुतः जो अपने हैं, . उनके प्रति मेरा कोई लक्ष्य नहीं, इसी कारण जीव निरन्तर संसार में परिभ्रमण कर रहा है। इस परिभ्रमण को समाप्त करने के लिये हमें समत्व में स्थिर बनना पड़ेगा । आनन्दघनजी ने भी यही कहा है : 'प्रीति सगाई जगमां सहु कहि रे, प्रीत सगाई न कोय ।'
संसार में सब जीवों के साथ रिश्ते बनाये । किन्तु अन्त में कोई भी साथ देने वाला नहीं है । स्थायी प्रीति कहीं नजर नहीं आई ।
१३३ ' क्षीरनीरवदेकत्र स्थितयोर्देहदेहिनो ।
भेदो यदि ततोऽन्येषु कलत्रादिषु का कथा ।। ४६ ।।' १३४ 'जा तन में नित जिय वसै, सो न आपनो होय |
पद्मनन्दि अध्याय ६ ।
तो प्रत्यक्ष जो पर दरब, कैसे अपने होय । - देखिये 'बारह भावनाः एक अनुशीलन' पृ ६६ । १३५ 'ज्ञान दर्शन चारित्र केतनां चेतनां विना ।
- शान्तसुधारस पृ. २८ ।
-वही ।
१३६
सर्वमन्यद् विनिश्चित्य, यतस्व स्वहिताऽऽप्तये ।।' ‘जन्मनि - जन्मनि विविध परिग्रहमुपचिनुषे च कुटुम्बम् । तेषु भवन्तं परभवगमने, नानुसरतिकृशमपि सुम्बम् ।।'
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