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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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अशरण का अर्थ है - असहाय! जिसे पर की सहायता की अपेक्षा नहीं, शरण की आवश्यकता नहीं; वस्तुतः वही असहाय है, अशरण है। आचार्य पूज्यपाद ने इसी अर्थ में केवलज्ञान को असहाय ज्ञान कहा है। जिस ज्ञान को पदार्थों के जानने में इन्द्रिय आलोक आदि किसी की भी सहायता नहीं होती, उसे असहाय ज्ञान या केवलज्ञान कहते हैं। __अनित्य भावना और अशरण भावना में मूलभूत अन्तर इतना ही है कि अनित्यभावना कहती है : 'मरना सबको एक बार अपनी-अपनी बार' और अशरण भावना कहती है : 'मरतै न बचावे कोई।
रागात्मक विकल्पों को जड़मूल से उखाड़कर फेंकने का सामर्थ्य एवं समत्वयोग की ओर जोड़ने की चिन्तनात्मक वृत्ति ही अशरण भावना में है। निश्चय से तो एकमात्र अपनी शुद्धात्मा की ही शरण है। संकल्प-विकल्प से जब चित्त उद्वेलित हो जाता है। तब शुद्धात्मा, पंचपरमेष्ठी या प्रभु परमात्मा की शरण ही सहायक बनती है और यही समत्व को स्थिर बनाती है।
अशरण भावना का मूल प्रयोजन संयोगों और पर्यायों की अशरणता का ज्ञान करे और दृष्टि को वहाँ से हटाकर स्वभाव सन्मुख होना तथा समत्व में स्थिर होना है।
रत्नकरण्डकश्रावकाचार वचनिका में पण्डित सदासुखदासजी लिखते हैं कि इस संसार में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र
और सम्यक् तप-संयम ही शरण हैं। इन चार की आराधना के बिना अनन्तानन्तकाल में कोई शरण नहीं है तथा उत्तम क्षमादिक दशधर्म प्रत्यक्ष इस लोक में समस्त क्लेश, दुःख आदि से रक्षा करने वाले हैं।८
हे आत्मार्थी! अशरण भावना का चिन्तन करके निज स्वभाव की शरण ग्रहण करके अनन्त सुख को प्राप्त कर। इस प्रकार अशरण भावना भी हमारे रागभाव या ममत्वबुद्धि को समाप्त करने में सहायक होती है। उससे समभाव की वृद्धि होती है।
६७ सर्वार्थसिद्धि अध्याय १ सूत्र ६ की टीका । - रत्नकरण्डक श्रावकाचार पृ. ४०० ।
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