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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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जिसका कभी अन्त नहीं आता। उत्तराध्ययनसूत्र में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यदि सोने और चाँदी के कैलाश पर्वत के समान असंख्य पर्वत भी खड़े कर दिये जायें, तो भी इस दुष्पूर्य तृष्णा की पूर्ति नहीं हो सकती, क्योंकि धन चाहे कितना भी हो, वह सीमित है और तृष्णा अनन्त है। अतः सीमित साधनों से इस असीम तृष्णा की पूर्ति नहीं की जा सकती। किन्तु जब तक तृष्णा शान्त नहीं होती, तब तक दुःखों से मुक्ति भी नहीं होती। सूत्रकृतांग के अनुसार मनुष्य जब तक किसी भी प्रकार की आसक्ति रखता है, तब तक दुःख से मुक्त नहीं हो सकता।" जैन दार्शनिकों की दृष्टि में तृष्णा या आसक्ति दुःख का पर्यायवाची ही बन गई है। यह तृष्णा या आसक्ति ही परिग्रह (संग्रहवृत्ति) का मूल कारण है। आसक्ति ही परिग्रह है।५ जैन आचार्यों ने जिस अपरिग्रह के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, उसके मूल में यही अनासक्तिप्रधान दृष्टि कार्य कर रही है। यद्यपि आसक्ति एक मानसिक तथ्य है - मन की ही वृत्ति है, किन्तु उसका सीधा सम्बन्ध बाह्य वस्तुओं से है और वह बाह्य में ही प्रकट होती है। वह सामाजिक जीवन को दूषित करती है। अतः आसक्ति के प्रहाण के लिये व्यवहारिक रूप में परिग्रह का त्याग भी आवश्यक है। गृहस्थ जीवन में परिग्रह मर्यादा और श्रमण जीवन में समग्र परिग्रह के त्याग का निर्देश है। दिगम्बर जैन मुनि का आत्यन्तिक अपरिग्रही जीवन अनासक्त दृष्टि का सजीव प्रमाण है। हम देखते हैं कि राष्ट्रों एवं वर्गों की संग्रह एवं शोषण वृत्ति ने मानव जाति को कितने दुःखों एवं कष्टों में डाला है। जैन आचारदर्शन के अनुसार समविभाग और समवितरण साधना का आवश्यक अंग है। जैन विचारधारा में यह स्पष्ट कहा गया है कि जो समविभाग और समवितरण नहीं करता, उसकी मुक्ति सम्भव नहीं है। ऐसा व्यक्ति पापी ही है।६ समविभाग और समवितरण सामाजिक एवं आध्यात्मिक विकास का अनिवार्य अंग है। इसके बिना आध्यात्मिक
उत्तराध्ययनसूत्र ६/४८ ।
सूत्रकृतांग १/१/२ । ५५ दशवैकालिकसूत्र ६/२१ ।
प्रश्नव्याकरणसूत्र २/३ ।
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