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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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का दोष है। विचारशील मनुष्यों को लक्ष्मी के दोष व उसकी अस्थिरता का ख्याल करके अनित्य-भावना की गहराई में उतरकर लोभ, तृष्णा, गर्व और उद्दण्डता को दूर करना है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि समग्र सांसारिक वैभव, इन्द्रियाँ, रूप, यौवन, बल, संसार, देह, भोग और लक्ष्मी सभी इन्द्र धनुष के समान क्षणिक हैं, संयोगजन्य हैं और इसीलिये व्यक्ति को समग्र सांसारिक उपलब्धियों की अनित्यता एवं संयोगजन्यता को समझकर उनके प्रति आसक्ति को हटाकर समत्व में स्थिर बनना है। __ शान्तसुधारस में विनयविजयजी ने बताया है कि अनित्य भावना के चिन्तन के बिना चित्त में शान्तसुधारस स्फुरित नहीं हो पाता। उसके अभाव में मोह और विषाद के विष से आकुल जगत् में स्वल्पमात्र भी सुख प्राप्त नहीं होता।
आगे फिर वे कहते हैं कि मनुष्य का जीवन वायु से उठती हुई उर्मियों की भाँति चंचल है; आपदा और विपत्तियों से ग्रस्त है। इन्द्रियों के सभी विषय संध्या के आकाश के रंगों की भाँति चलायमान हैं। मित्र, स्त्री तथा स्वजनों के संयोग से मिलने वाला सुख स्वप्न और इन्द्रजाल की तरह क्षणिक है। इस प्रकार इस संसार में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जो मनुष्यों के लिये प्रमोद का आलम्बन बन सके।
अनुत्तरौपपातिकदशांगसूत्र में भी मनुष्य जीवन सम्बन्धी समग्र अनित्यता का सारगर्भित संक्षिप्त वर्णन उपलब्ध होता है।८ उत्तराध्ययनसूत्र में भी भगवान महावीर ने गौतम को सम्बोधित करते हुए कहा है कि "हे गौतम! तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है। केश
६५ 'स्फुरति चेतसी भावनाय विना, न विदुषामपि शान्तसुधारसः । न च सुखं कृशमप्यमुना विना, जगति मोह विषाद विषाऽऽमुले ।। ६६ ।।'
-संस्कृतछाया भावपाहुड । 'आयुर्वायुतरत्तरङ्गतरलं लग्नापदः सम्पदः । सर्वेऽपीन्द्रियगोचराश्च चटुलाः सन्ध्याभ्ररागादिवत् ।। मित्रस्त्रीस्वजनादिसङ्गमसुखं स्वप्नेन्द्रजालोपमं । तत्किं वस्तु भवे भवेदिह मुदामालम्बनं यत्सताम् ।। २ ।।
-शांतसुधारस । वही। ८८ अनुत्तरौपपातिकदशांगसूत्र ३/१/५ ।
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