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जैनदर्शन में समत्वयोग की साधना
हे भद्र! तू क्यों इस नश्वर शरीर पर मोहित होता है; क्योंकि शरीर विनाशशील है ('प्रतिक्षणं शीर्यते इति शरीरं')। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी बताया गया है कि ऐसे शरीर में स्थिर मानना बहुत बड़ी भूल है।२ ज्ञानार्णव में बताया है : “हे प्राणी! यह शरीर तूने अनन्त बार धारण किया है और छोड़ा भी है। फिर भी इस पर क्यों मोहित हो रहा है।"८२ प्राणी की आसक्ति का घनीभूत आश्रय शरीर है। वह शरीर को स्वस्थ एवं चिरंजीवी रखने का हर समय प्रयास करता है। उसे अच्छे से अच्छा खिलाता है, पिलाता है। इसको हृष्ट-पुष्ट बनाता है, इसे सजाता है। फिर भी यह शरीर अन्त समय में धोखा देकर जाने वाला है। यह शरीर अनित्य है, अस्थायी है। अज्ञान के कारण व्यक्ति शरीर की अपेक्षा लक्ष्मी को अधिक महत्त्व देता है। उससे अधिक प्रीति रखता है। किन्तु हे मानव! यह लक्ष्मी हवा से काँपने वाली दीपक की लौ की तरह अस्थिर और नष्ट होने वाली है। इसकी प्राप्ति भी पुण्य के अधीन है। इस लक्ष्मी का वियोग अवश्यम्भावी है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा में लक्ष्मी को पानी की लहर के समान चंचल बताया है। यह रहने वाली नहीं है। जैसे बताया गया है कि जिस पुरुष ने लक्ष्मी को पा करके केवल संचय ही किया, दान तथा भोग में खर्च नहीं किया, उसने मनुष्य जीवन पाकर भी निष्फल किया। केवल अपनी आत्मा को ठगने का कार्य किया। __ मनुष्य प्राप्त हुई लक्ष्मी का अभिमान करता है, लक्ष्मी की सत्ता से दूसरों को दबाता है, सताता है। अप्राप्त लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये इधर-उधर भटकता फिरता है और अनर्थ कार्य करता है तथा पाप प्रवाह में बह जाता है। ऐसा मनुष्य धन-लोलुपी साबित होता है। वह लक्ष्मी के मद या लोभ में अपनी बुद्धि को खो बैठता है। हे मूढ़! लक्ष्मी का स्वभाव ही अनित्य है। इस तथ्य को जानते बूझते भी व्यक्ति लक्ष्मी का सद्भोग नहीं कर सकता, यह मनुष्यों
२२ कार्तिकेयानुप्रेक्षा श्लोक ६ ।।
'यद्यपूर्व शरीरं स्याद्यदि वात्यन्तशाश्वतम् । युज्यते हि तदा कर्तुमस्याथे कर्म निन्दितम् ।। १६ ।।' 'जो पुण लच्छिं संचदि, ण य भुंजदि णेय देदि पत्तेसु । सो अप्पाणं वंचदि, मणुयत्तं णिप्फलं तस्स ।। १३ ।।'
-ज्ञानार्णव सर्ग २।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ।
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