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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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सम्पूर्ण स्थिति संयोगों व पर्यायों के परिणमनशील स्वभाव का सम्यग्ज्ञान श्रद्धान न होने से बनती है। अतः इस अनित्य भावना में संयोगों व पर्यायों की अनित्यता/क्षणभंगुरता का चिन्तन किया जाता है। इसी सन्दर्भ में आचार्य कल्प-पण्डित टोडरमलजी का भी कथन है कि व्यक्ति स्वयं जैसा होता है, उसी अनुरूप पदार्थों को परिणमित करना चाहता है, किन्तु कोई किसी को परिणमित करने में समर्थ नहीं है। जिस प्रकार कोई मोहित व्यक्ति मुर्दे को जीवित करना चाहे, तो क्या सम्भव हो सकता हैं? उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि होकर पदार्थों को अन्यथा माने, अन्यथा परिणमित करना चाहे, तो ऐसा सम्भव नहीं हो सकता है। मिथ्यादृष्टि अज्ञानजन्य आकुलता-व्याकुलता करते हैं। यही मिथ्यादृष्टि व्यक्ति को दुःखी करने में निमित्त बनता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि ज्ञानियों या समत्वयोगियों को आकुलता-व्याकुलता नहीं होती। वे चित्त को सन्तुलित बनाये रखते हैं। उन्हें यह ज्ञान हो जाता है कि यह संसार परिवर्तनशील है। जो आता है उसे निश्चित एक दिन यहाँ से जाना पड़ता है। स्थिरता नाम का कोई तत्त्व है ही नहीं। सब कुछ अनित्य है। यह आकुलता-व्याकुलता रागजन्य है। इसी कारण अस्थिरता/क्षणभंगुरता का चिन्तन निरन्तर करना आवश्यक है। ज्ञानी-अज्ञानी, संयमी-असंयमी सभी के लिये इस अनित्य भावना का चिन्तन उपयोगी है।
प्रशमरतिसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने बताया है कि "हे जीव! तू इष्टजन, संयोग, ऋद्धि, विषयसुख, सम्पत्ति, आरोग्य, देह, यौवन
और जीवन - इन आठों तत्त्वों के प्रति अनित्यता का चिन्तन कर, जिससे तू राग-द्वेष से ऊपर उठ पायेगा।"
मनुष्य के शरीर में एक भी रोम ऐसा नहीं है, जिसके मूल में रोग की सत्ता न हो। एक-एक रोम में पौने दो रोगों का अस्तित्त्व बतालाया गया है। रोगों के उपद्रव और आयु की क्षीणता - इन दो कारणों से यह शरीर अनित्य, नश्वर और क्षणभंगुर है।
__ 'बारहभावना एक अनुशीलन' पृ. २६ ।
'इष्टजन-संप्रयोगद्धि-विषयसुख-सम्पदस्तथाऽऽरोग्यम् । देहश्च यौवनं जीवितं च सर्वाण्य नित्यानि ।। १५१ ।।'
-प्रशमरतिसूत्र ।
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