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समत्वयोग की वैयक्तिक एवं सामाजिक साधना
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वीतरागता है, वही समत्व है और जो समत्व है वही मोक्ष है।
व्यवहारिक रूप से देखें तो आत्मा की अज्ञानपूर्ण या मोह अवस्था के कारण उसमें अनुकूल के प्रति राग और प्रतिकूल के प्रति द्वेष के भाव उत्पन्न होते हैं। इसी राग-द्वेष के आधार पर क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषायों का जन्म होता है। कषायों की उपस्थिति से आत्मा में आवेश या विक्षोभ जन्म लेते हैं। आवेगों और विक्षोभों के परिणामस्वरूप चेतना का समत्व भंग होता है। आत्मा का आवेगों या विक्षोभों से युक्त होना, यही उसकी विभावदशा है। इस विभावदशा को समाप्त करने के लिये ही साधना की जाती है। समत्वयोग की साधना के द्वारा व्यक्ति इन विक्षोभों और आवेगों के ऊपर विजय प्राप्त करता है। विक्षोभों
और आवेगों के ऊपर विजय प्राप्त होने पर वीतरागता की उपलब्धि होती है और यही वीतरागता मुक्त आत्मा का स्वरूप कही जाती है। वीतरागता की उपलब्धि होने पर आत्मा समत्व या स्वभाव में अवस्थित होती है और अपने समत्वरूप स्वभाव में अवस्थित होने को ही मोक्ष कहा गया है। इस प्रकार समत्व और मोक्ष एक दूसरे के पर्यायवाची ही हैं। समत्व ही मोक्ष है और मोक्ष ही समत्व है। इसीलिये आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा था कि मोह और क्षोभ से रहित आत्मा की जो अवस्था है, वही मोक्ष है।५८ समत्व की साधना ही मोक्ष का अन्तिम कारण है। इसीलिये आचार्य हरिभद्र ने कहा था कि जो समत्व की साधना करेगा, वह निश्चय ही मोक्ष प्राप्त करेगा।
४.११ समत्व की साधना और बारह भावनाएँ एवं
चार अनुप्रेक्षाएँ समत्वयोग की साधना के लिये अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैनदर्शन में अनित्यता, अशरण आदि बारह भावनाएँ मानी गई हैं। इन भावनाओं का चिन्तन करने से व्यक्ति की आसक्ति या रागभाव समाप्त होता है। भावना मन का वह भावात्मक पहलू है, जो साधक को उसकी वस्तुस्थिति का बोध
६६ प्रवचनसार १/५ ।
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